जरुरी नहीं की हर वस्तु जो गिनी जा सकती है मायने रखती हो , और हर वस्तु जो मायने रखती हो वह गणना योग्य हो



भारत के प्राचीन  दर्शन शास्त्र में असत्कार्यवदा व सत्कार्यवदा के बीच में एक बहस दिखाई पड़ती है । असत्कार्यवदा के अनुसार पहले किसी विचार  के रूप में कार्य जन्म लेता है और फिर वो वास्तविकता में घटित होता है वहीँ सत्कार्यवदा का दर्शन मानता है की पहले कार्य होता है फिर उससे सम्बंधित भाव की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त दर्शन हमें विचारों के निर्माण के बारे में शिक्षा देते हैं की आखिर हमारे विचार और विश्वास कैसे जन्म   लेते हैं । आधुनिक काल में यह बहस  तो समाप्त हो गयी है परन्तु इस बात पर नयी चर्चा शुरू हुई है की कंप्यूटर की इस दुनिया में जहाँ आंकड़ों की भरमार है वहां सही सूचना का निर्माण कैसे हो । कौन से ऐसे  मानक हो जो हमारे विचारों और कार्यकलापों के निर्माण के लिए सही दिशा दें । क्या हम केवल उन्ही विचारों को मान कर चलें जो प्रमाणित है या फिर हम उन्हें तरजीह  दें जो प्रमाणित नहीं है परन्तु उनका भाव प्रगति मूलक हो । विचारों का सही दिशा में होना आवश्यक है क्यूंकि इसी की पीठिका पर समाज बनता है  और फिर समाज राज्य का ढांचा बनाता है । यह अन्वेषण करने का मुद्दा है की आधुनिक युग में हमारे सोच , विचार व कार्य किस प्रकार आकार  ग्रहण करें। 

यह बात १८५७ की है जब मेरठ और बरेली से आये सिपाही दिल्ली के लाल किले में  बहादुर शाह द्वितीय से उनका नेता बनने की गुजारिश कर रहे थे । बहादुर शाह को विश्वास था की उनकी सैन्य छमता अंग्रेजों से कहीं कम है परन्तु सिपाहियों ने उन्हें यह विश्वास दिलाया की उनकी गणना कहती है की वे अंग्रेजों को बाहर खदेड़ देंगे । उन्होंने दिल्ली के ४ दरवाजों पर अपनी स्तिथि , अपने बारूद , अपने घोड़ों के बारे में ऐसा बढ़ चढ़ कर ब्यौरा दिया की बहादुर शाह तैयार हो गए । हालांकि सिपाहियों ने अंग्रेजों की सेना का कोई विश्लेषण नहीं किया था और न ही इस बात पर विचार किया था की बलवे की स्तिथि में सिपहिोयों को रसद  कहाँ से मिलेगी । इस समय आंकड़ों का खेल दिल्ली के पतन की वजह बना और एक ऐसा नरसंहार शुरू हुआ जो अप्रत्याशित था । सिपाहियों का जोश और नजरिया देशभक्ति का था परन्तु उन्होंने केवल एक गणना पर ही अपनी जीत का स्वप्न सजा लिया और बहादुर शाह के अनुभव और भावों को पीछे छोड़ दिया । 
वहीँ एक दूसरा उदहारण भी मिलता है  जब पानीपत की तीसरी जंग के दौरान सदाशिव् राव भाऊ केवल इस अनुमान पर मराठा स्त्रियों को लेकर कुरुक्षेत्र चला गया की अब्दाली बाढ़ वाली यमुना जल्दी पार नहीं कर पाएगा । हालांकि उसको होल्कर ने कहा था की यमुना कई जगहों में  गहरी नहीं है ,परन्तु सदाशिव ने अपने भ्रम के आगे प्रमाण को नकार दिया और अंततः पानीपत का युद्ध मराठे हार गए  । 

उपर्युक्त दोनों ऐतिहासिक उदाहरण यह सिद्ध करते हैं की भाव और तर्क दोनों का मिलान आवश्यक है । कोई भी कार्य या योजना केवल आंकड़ों  पर आधारित नहीं हो सकती , और न ही वह केवल किसी नेता की दूर दृष्टि पर बन सकती है । वर्तमान में हम  देखते हैं की 18वीं सदी से जब आद्योगिक क्रान्ति का प्रसार शुरू हुआ तो अधिकतर पश्चिमी मुल्कों ने पूंजी अर्जन व संचय को ही लक्ष्य बना लिया और देश की शक्ति उसकी सम्पति के समानुपाती हो गयी अर्थात जिसके पास जितना सोना वो उतना ही शक्तिशाली । सम्पन्नता के इस भ्रामक विचार में उन्होंने एक छुपे हुए मूल्य को  तिलांजलि दे डाली , वह   मूल्य था पर्यावरण संरक्षण का । भौतिक उन्नति  की बयार में और धन के बढ़ते आंकड़ों के मध्य उन्होंने पर्यावरण को होने वाली हानि को अनदेखा कर दिया । विलियम वर्ड्सवर्थ जैसे  कवियों ने पर्यवरण हानि का दृश्य प्रकट किया और सचेत किया की  आने वाला समय इस हानि की भरपाई मांगेगा , परन्तु आंकड़ों की जगह भाव पर विचार करना आद्योगिक समाज ने छोड़  दिया था । यदि उस समय भाव और आंकड़ों का तालमेल बन जाता तो आज पेरिस में बैठकर कार्बन उत्सर्जन  कम करने की  रणनीतियां नहीं बनानी पड़ती । उस समय आंकड़ों की अनुपलब्धता ने पर्यावरण की कीमत को नजरअंदाज कर दिया था  , परन्तु आज जब पर्यावरण सेवाओं की कीमत लगभग ३० ट्रिलियन डॉलर निश्चित की गयी तो सभी का ध्यान इस ओर खिंचा चला आया । ये बताता है की आधुनिक युग कैसे आंकड़ा पिपासु हो गया है और उन्हें अनुभव , भाव और अनुमान का सहारा लेना छोड़  दिया है। 

ऐसा नहीं  है की आंकड़ों का संचयन और विश्लेषण जरुरी नहीं है , परन्तु इस बात की भी महती आवश्यकता है की उनका  सह सम्बन्धन परिस्तिथिओं , पुराने अनुभव  , और छेत्रीय मांगों से भी करना चाहिए। ऐसा करने पर ही वास्तविक तस्वीर उभर कर  सामने आती है । उदाहरण के लिए हम बात कर सकतें हैं निर्मल भारत अभियान और स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत बनाए गए शौचालयों की । 
NSSO के आंकड़ें बताते है की 
 इनके अंतर्गत भारत में लगभग ४०% घरों में टॉयलेट की व्यवस्था हो गयी है , और कई जगहों पर सरकार द्वारा समर्थन से सामुदायिक शौचालयों का भी निर्माण हुआ है । परन्तु जब हम जमीनी स्तर पर स्तिथि को देखते हैं तो पता चलता है की सीवर व्यवस्था , पानी व्यवस्था , रखरखाव का अभाव , अस्वछ्ता आदि के कारण अभी भी लोग घर में शौचालय बनवाने के बाद भी खुले में शौच के लिए जाते हैं । सामुदायिक केंद्रों में एक और लक्षण है जो इनको असफल करता है वह है गाँवों में व्यापत जाति व्यवस्था तथा दलित शोषण जिसके कारण गाँव का  हर तबका इनका प्रयोग नहीं कर पाता । यहां इस बात की आवश्यकता है की यदि सोच बदलने पर भी अनुकूल बल दिया जाता , छेत्रीय समुदाय को ज्यादा शामिल करके उनकी राय लेकर यदि निर्माण होता तो शायद ज्यादा लाभ मिलता । 

आंकड़ों  का प्रयोग विरोधाभास भी उत्पन्न कर सकता है , अब हम एक नजर डालते हैं हमारी शिक्षा व्यवस्था पर । आधुनिक युग में  भी हमारी शिक्षा प्रणाली अंकों और ग्रेड पर आधारित है । अभी भी हमारी विद्या का मूल बल हमारी आद्योगिक व्यवस्था के अनुसार श्रमिक व दक्ष प्रबंधक बनाने पर है नाकि स्वतंत्र उद्यमिता के विकास पर , इसी कारणवश युवाओं का बल दक्षता से ज्यादा डिग्री अर्जन पर होता है ।  ये शिक्षा प्रणाली हमे प्रतिस्पर्धी बनाती जा रही है नाकि सहयोगी । भले ही २०११ की जनगड़ना यह कहती हो की ७५% लोग शिक्षित हैं पर क्या वे वास्तव में अपना स्वतंत्र विकास करने में सक्षम है। अमर्त्य सेन के अनुसार विकास का असली सूचक होता है लोगों के पास उपलब्ध चयन की स्वतंत्रता, पर क्या भारत की शिक्षा प्राणी लोगों को यह स्वतंत्र दे पायी है । हालांकि इस शिक्षा के कारण  आज भारत में महिला सशक्तिकरण हुआ है परन्तु उनकी संख्या १०% से ज्यादा नहीं है । 

आंकड़ों का होना स्तिथि का सही विश्लेषण करने में सहायक होता है, परन्तु किन किन आकंड़ों को विश्लेषण में लिया जाए इसके लिए सही भाव और विचार का होना भी जरुरी है । कई अन्य मुद्दे भी है जो आंकड़ों के मध्य ही विरोधाभासों को दर्शाते हैं । आंकड़ें दर्शाते हैं की भारत में ८८% विवाह तयशुदा होते हैं और ये आम विश्वास है की तयशुदा शादियां प्रेम विवाह से ज्यादा सफल होती हैं , परन्तु फिर कुछ अन्य आंकड़ें ये भी दर्शाते हैं की ७०% भारतीय नारियां घरेलु हिंसा का शिकार होती हैं । इसका मतलब यह हुआ की भले ही तयशुदा शादियां ज्यादा होती है परन्तु उनमे महिलाओं की पारिवारिक भागीदारी सीमित होती है और पति द्वारा छोड़ दिए जाने के भय से वे सब कुछ चुप चाप सहती हैं । इसमें कहना  न होगा की आंकड़ें भले ही तयशुदा शादियों को तरजीह दें पर वास्तविकता इसका समर्थन नहीं करती । 

अब इस बात पर भी विचार करना आवश्यक है की आखिर क्यों हम आकंड़ों के खेल में उलझ जाते हैं और दूसरे आनुभविक तथ्यों पर विश्वास नहीं करते । वहीँ कुछ लोग ऐसे भी क्यों होते हैं जो केवल श्रद्धा पर विश्वास करते हैं और प्रमाणों को मिथ्या मानते हैं । दरअसल हमारे विश्वासों का जन्म स्वतंत्र रूप में नहीं होता , हम जो भी सोचते है , विचारते  हैं वह सब कुछ हमारे आस पास के माहौल से प्रभावित होता रहता है । इसीलिए अधिकतर देखा जाता है की भारतीय व्यक्ति आध्यात्म को ऊपर रखता है जबकि पश्चिमी सभ्यता में जन्मा व्यक्ति भौतिकता को तरजीह देता  है । हमारी मूलभूत सोच की प्रणाली ही यह तय करती है की हम तर्क प्रधान होंगे या भाव प्रधान । हमे आज के युग में इन बेड़ियों को तोडना होगा और ऐसी सोच का विकास करना होगा जो वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आध्यात्मिकता को समायोजित कर सके । 
जैसा की खलील गिब्राहन अपनी रचना थे 'द प्रोफेट' में लिखते हैं की मनुष्य का विकास तर्क और भाव के मिश्रण से ही संभव है क्यूंकि तर्क भाव को दिशाहीन होने से बचाता है  और भाव  तर्क को नयी दिशा देता है । 

यह प्रसन्नता की बात है की भारत में अब भाव और तर्क का समिश्रण दिखने लगा है । नयी शिक्षा नीति में जहाँ इस बात पर बल दिया गया है की शिक्षा का उद्देशय स्वतंत्र विचार की खोज हो वहीँ कौशल विकास कार्यक्रम द्वारा उद्यमिता की सोच को बढ़ावा दिया जा रहा है । संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिवेदनों में भी अब HDI सूचकांक को गरीबी और असमानता के आधार पर MPI और इनइक्वालिटी एडजस्टेड HDI के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा है जिससे जमीनी स्तर पर अध्ययन को बढ़ावा दिया जा सके । भारत में SHG , NGO  के माध्यम से योजनाओं में सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा दिया जा रहा है जिससे ऐसी योजनाओं का निर्माण हो जो सर्वसमावेशी हो और विकास की सही दिशा  प्रदान करें । जनजातियों के ज्ञान को भी आधुनिक ज्ञान से मिलकर नयी शोधों को जन्म दिया जा रहा है जिससे नयी दिशा में विचार को बढ़ावा मिले । आयुष मंत्रालय द्वारा चलाये गए कई कार्यक्रम योग, आयुर्वेद , यूनानी , होमियोपैथी को बढ़ावा दे रहे हैं जिनके सन्दर्भ में बहुत से सफल आंकड़ें मौजूद नहीं है परन्तु अनुभव और आशाएं उनमे नयी दिशा खोजते हैं ।  

इस प्रकार हम कह सकते हैं किसी भी कार्य या योजना  के लिए आवश्यक है  उसमे सही आंकड़ें व सही विचार समावेशित किये जाएँ । यह बात केवल प्रशासकों , शासकों पर ही लागू नहीं होती अपितु वैज्ञानिको, उद्यमियों , शिक्षकों पर भी लागू होती है , हम सभी को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण- परिणाम विश्लेषण के साथ साथ अनुभवों और विचारों का समिश्रण करना भी सीखना होगा । जब हम अपनी सोच को इस ओर मोड़ लेंगे तब हमारा विकास एकाकी नहीं होगा , हमारा समाज नयी परम्पराओं का सृजन करेगा , हमारी शिक्षा प्रणाली प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग  विकसित करेगी और हम सबके भीतर अवसाद की जगह संतोष घर करेगा । हम जब अपने विचारों में आंकड़ों की प्रमाणिकता और भावों की आशावादिता को भर लेंगे तो निश्चित ही आने वाला भविष्य उज्जवल होगा । गुरुदेव रबिन्द्र नाथ टैगोर ने कहा था की कोई भी संस्कृति अकेली श्रेष्ठ नहीं हो सकती , यह तो संस्कृतियों  का संगम है जो मानव जीवन को प्रकाशित करेगा । पश्चिम की भौतिक संस्कृति यदि भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से मिल जाये , नव वैज्ञानिक विचार यदि आध्यात्मिक ऊर्जा ग्रहण कर  लें तो मानवता एक सूत्र में बंध जाएगी और "वसुधैव कुटुंबकम " का दर्शन सिद्ध हो जायेगा । 

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