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Showing posts from July, 2016

सच्चा ज्ञान यह जान लेने में है कि आप कुछ नहीं जानते

सुकरात ने कहा था कि आप तभी सच्चे ज्ञान को पा सकते हैं जब आप किसी पूर्वाग्रह में न फसे हो। कुछ नया सीखने के लिए बहुधा पुरानी मान्यताओं से अलग सोचना ही पड़ता है। जब मनुष्य ये मान ले की उसने सब कुछ जान लिया है और नए ज्ञान की खोज करना बंद कर दे तो उसकी प्रगति वहीँ रुक जाती है। समय के साथ उसके ज्ञान पर धूल चढ़ जाती है और फिर नए समय से कदम न मिला पाने के कारण उस ज्ञान और व्यक्ति दोनों का ही आस्तित्व सन्कट में पड़ जाता है । प्रगति मनुष्य की हो, समाज की, विज्ञान की या फिर राज्य की वो इस बात पर ही टिकी होती है की पिछला कुछ भुलाया जाये और कुछ नया खोज जाये। जब आप यह मान लेते हैं कि आप के पास जो ज्ञान है वो सीमित है और समय के साथ वो खत्म जायेगा तब आप नए विचारों को खोजते हैं। बदलते समय के साथ आप स्वयं में बदलाव लाते हैं और फिर आप प्रगति करते हैं। जब आप यह मानने को तैयार हो जाएं की कोई भी ज्ञान शास्वत नहीं है , तभी आप नए समाज के निर्माता भी बनेंगे। नया ज्ञान न सिर्फ नयी सोच देता है बल्कि वह अच्छे/ बुरे, न्याय/ अन्याय आदि के मध्य भी नए विभाजन स्थापित करता है। सुकरात ने न्याय की परिभाषा करते हु

हम आतंकवाद से लड़ नहीं सकते, हमें इसके साथ ही रहना होगा

11 सितम्बर 2001 की वह सुबह अमरीकी लोगों के लिए आम ही थी जब तक की एक अपहृत विमान वैश्विक व्यापार की प्रतीक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से नहीं टकराया था। कुछ देर बाद ही एक दूसरा विमान इसी सेंटर की दक्षिणी ईमारत से टकराया और यहीं से इतिहास एक नयी दिशा में मुड़ गया। 9/11 के हमले से पूर्व विश्व आतंकवाद को एक छेत्रीय घटना के रूप में समझता आया था परंतु इस घटना ने आतंकवाद को वैश्विक रूप दे दिया । अब सम्पूर्ण विश्व इस खतरे के प्रति सचेत हुआ और इससे लड़ने की रणनीति बनाने लगा । आतंकवाद के प्रति बदले दृष्टिकोण ने इस बहस को जन्म दिया की आतंकवाद का खात्मा कैसे हो। क्या आतंकवाद से लड़कर उसे ख़त्म किया जाये या उसके साथ रहते हुए ऐसे कारणों को ख़त्म किया जाये जिससे यह उपजता है । प्रश्न यह है कि क्या आतंकवादियों को ख़त्म करने से आतंकवाद समाप्त होगा या फिर इसका समाधान कुछ और है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमे सबसे पहले आतंकवाद को समझना होगा। मूलतः आतंकवाद की उत्पत्ति 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति से जोड़ी जाती है जब तानाशाह राब्सपीयर ने आतंक का शासन लागू किया था फिर आगे चलकर 19वीं और 20वीं सदियों में इसने राष्ट्रवादी व

जो घर स्वयं में ही विभाजित हो वह खड़ा नहीं रह सकता |

घर एक ऐसी जगह है जहां परिवार रहते हैं । परिवार केवल इंसानों के साथ रहने से ही नहीं बल्कि उनके आपसी जुड़ाव से बनते हैं ।  आपस के प्यार भरे रिश्ते , नोक झोंक और एक दूसरे का साथ निभाने का एहसास यही है जो परिवार को परिवार और घर को घर बनता है । घर में अलग अलग विचारों के कारण मतभेद हो सकते हैं पर जब मतभेद बढ़ कर विभाजन का कारण बन जाते हैं तो घर टूटने लगते हैं । हमारे महाकाव्य गवाह हैं की कैसे रावण विभीषण के मतभेदों  के चलते लंका ध्वस्त हो गयी  और पांडव- कौरव विचार विभाजन से  कुरुक्षेत्र की भूमि सम्बन्धियों  के रक्त से पट गयी |परिवारों में जब मतभेद होते हैं तो परिवार की सोच परिष्कृत होती है और परिवारों के निर्णय एकांगी नहीं होते परंतु जब मतभेद विभाजन का रूप ले लें तो प्रगति रुक जाती है और परिवार दिशाहीन हो जाते हैं। परिवारों के संयोग से ही समाज बनते हैं और समाज में मतभेदों की संख्या परिवारों की संख्या के साथ साथ बढ़ती  जाती है। समाज में वैचारिक मतभेदों के साथ साथ लैंगिक, धार्मिक, जातीय, नस्लीय और आर्थिक मतभेद भी होते हैं पर यही मतभेद या छोटे अंतर उग्र रूप लेकर विभाजन में बदल जाते हैं । भारत