मूर्खों को ऐसी श्रृंखलाओं से मुक्त कराना दुष्कर होता है जिनसे वे भयभीत होते हैं ।

18वीं सदी में जब विश्व एक नींद से जाग रहा था और तर्क वितरक की क्षमता से अपने जीवन को नयी दिशा दे रहा था तब रूसो ने कहा की 'आज मानव सर्वत्र बेड़ियों से जकड़ा हुआ है'। उसके अनुसार 'तर्क वितर्क से भले ही मानव ने आर्थिक और राजनैतिक प्रगति कर ली है पर उसने अपनी स्वाभाविक पाशविकता को छोड़ दिया है , उसने स्वछंदता का त्याग दिया है और खुद को कला की सुंदरता से विमुख कर लिया है ।' रूसो का कथन अपने आस पास के समाज का विश्लेषण करता है जहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण लोग अंतर्दृष्टि को छोड़ कर केवल प्रमाण और स्थापित नियमों को ही सत्य मान लेते है । वर्तमान आधुनिक समाज में भी यह देखा जाता है की मानव सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक बेड़ियों में बंधा हुआ है , यह बेड़ियां अदृश्य है पर ये उसके रोज मर्रा के जीवन को प्रभावित करती चलती है । स्वतंत्र चिंतन की जगह स्थापित प्रथाओं व अंधविश्वासों ने ले ली है , इससे हमे आर्थिक प्रगति तो मिली है पर नयी सोच का विकास नहीं हुआ । हमारे पूर्वजों ने जिन स्वतंत्र विचारों को खोज था उन्हें आज हम सर्वमान्य सत्य मानकर नए विचारों के अन्वेषण से बच रहे हैं । इस प्रकार से आज भी हम ऐसे विचारों में बंधे हैं जो हमारे समय के हिसाब से प्राचीन हो गए हैं परन्तु हम उन्हें सही मानकर उन्ही का अनुसरण कर रहे हैं । जिन रीति रिवाजों को समाज को नयी दिशा देने के लिए बनाया गया था आज वही विचार नए मार्गों में अवरोधक हो गए हैं ।
मानव जब जन्म लेता है तो वह मिटटी के घड़े के सामान होता है परन्तु उसके आस पास का समाज उसके मूल्यों का निर्माण करता है । फिर उसकी अपनी शिक्षा दीक्षा उसके विचारों को आकार प्रदान करती है , मनुष्य अपने चिंतन के द्वारा ही ग्रहण की गयी शिक्षा को परिष्कृत करता है और इससे उसका व्यक्तित्व बनता है । शिक्षा का महत्व होता है की वह इंसान को विचार शील बनाए परन्तु मनुष्य बहुदा विचार की जगह स्थापित मान्यताओं को ही सत्य मान लेता है ताकि वह अपने समाज और राज्य में स्वयं को स्थापित कर सके । वॉल्टेयर जैसे विचारकों ने यह सिद्ध किया है की मनुष्य का उत्पीड़न इसीलिए होता है क्यूंकि वह मूर्खतावश ऐसे बंधनों में जकड जाता है जो राज्य व समाज उसके लिए बनाते हैं । जब तक मनुष्य इन बेड़ियों को तोड़ कर बहार नहीं आता तब तक वह नदी में लकड़ी की भांति बहता रहता है ।
भारत में हम देखते हैं की हमारे आस पास कई ऐसी कुप्रथाएं विद्यमान हैं जिनका आधार अनैतिक और अन्यायपूर्ण है परन्तु वे विद्यमान है इसलिए क्योंकी हम उनको समाप्त करने में डरते हैं । भारत में जब वर्ण व्यवस्था की शुरुआत हुई तो मनुस्मृति जैसे ग्रंथों ने इसको तर्क संगत बनाने के लिए ईष्वरीय उपदेश का सहारा लिया । धर्म और ईश्वर की स्थापना द्वारा समाज को इस प्रकार बांटा गया की कुछ लोग मेहनत करें और कुछ सुख भोगे । केवल वर्ण व्यवस्था ही नहीं , जाती प्रथा , सती प्रथा , बाल विवाह आदि ऐसे कई उदहारण है जो यह बताते हैं की किस प्रकार अतार्किक आधारों पर मनुष्य के शोषण को उचित ठहराया गया । दलित महिलाओं का यौन शोषण हो या फिर बधुआ मजदूरी , हर जगह कोई न कोई ऐसा आधार बनाया गया जो अन्याय पूर्ण था । रामायण में भी राम राजा होते हुए भी अपनी पत्नी का त्याग करने पर मजबूर हो जाते हैं क्योंकी उनके आसपास का समाज भी ऐसी बेड़ियों मे बँधा हुआ था जो स्त्री को दबा कर रखना चाहता था |
केवल भारत में ही नहीं बल्कि यूरोप और अन्य जगहों पर भी ऐसे उदहारण मिलते हैं जहाँ मनुष्य को अदृश्य बेड़ियों में बाँधा गया । अफलातून ने भी अपने दार्शनिक राजा के सिद्धांत में उद्दात मिथ्या (नोबेल लाइ) का विचार रखा जहाँ उसने समाज को उत्पादक, सैनिक व शासक में बांटा , उसने कहा की हमे आम जनता को यह विश्वास दिलाना होगा की यह विभाजन ईश्वर द्वारा निर्मित है नहीं तो लोग विरोध पर उतर आएंगे।
अब प्रश्न यह उठता है की मनुष्य इन बेड़ियों को जानते हुए भी क्यूँ नही तोड़ देता है | हर समाज मे कुछ व्यक्ति ऐसे अवश्य होते हैं जो यह समझते है की कुछ विश्वासों को तोड़ना ज़रूरी है पर फिर भी वह ऐसा क़्यों नही करते | इस प्रश्न
का उत्तर इस बात मे है की ये बेड़ियाँ भले ही अदृश्य हो परंतु इनका भय हर समय बना रहता है | धर्म के नाम पर स्वर्ग नरक आदि ऐसे विश्वासों को बढ़ावा दिया जाता है जिनसे आम जनता बिना विरोध करे उनसे जुड़ जाए| धर्म के नाम पर ऐसे भय का सृजन किया गया जो स्वतःही बढ़ता जाए , ऐसी कथाओं को लिखा गया जिसे आम मानस ने वास्तविक समझ कर अपना लिया | फिर जब एक मानव इस कड़ी से जुड़ा तो उसने यह प्रयत्न करना शुरू किया की और लोग भी इसमे जुड़ते जाएँ ताकि उसका विश्वास और मजबूत हो| माता पिता से बच्चों तक और फिर यह भय पीढ़ियों तक बिना प्रश्न हस्तांतरित होता गया| कुछ बातें जो सामान्यतः आम भलाई के लिए थी उन्हे भी अंधविश्वास वा धर्म से जोड़ दिया गया | उदाहरण के लिए पहले स्त्रियाँ अपनी माँग मे सिंदूर भरती थी जिसमे पारे का तत्व होता तथा और उससे उनके मान मे शांति वा उर्जा बनी रहती थी पर इसे फिर धार्मिक रूप दे दिया गया जिससे इसका आधार बदल गया और फिर जब इसपर प्रश्न उठे तो सारे उत्तर अतार्किक ही लगे |
यह बेड़ियाँ हमारे नज़रिए को ही संकुचित कर देती है | यह संभव है की हमारे बीच मे से कोई एक धर्म विशेष से सहमत ना हो और वह कुछ बातों का विरोध करे , अंतत: वह अपने धर्म का त्याग भी कर देता है परंतु यह सामाजिक बेड़ियाँ उसमे धर्म मुक्ति का विचार नही उत्पन्न होने देती| बहुदा मनुष्य एक धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म का सहारा ले लेता है क्योंकि उसके आसपास का समाज ये सिखाता है की हमे धर्म छात्र के भीतर ही रहना चाहिए | इस प्रकार हम यह कह सकते हैं की ये बेड़ियाँ जितनी सरल दिखती हैं ये उनसे कहीं ज़्यादा जटिल है|
नव मार्क्सवादी विद्वान आंटोनीयो ग्रामशी ने आधुनिक सामाजिक आर्थिक व्यवस्था का विश्लेषण आर्थिक प्रक्रिया वा सामजिक संरचना के आधार पे किया है | उसने भी यह माना की पूंजीवादी समाज केवल राज्य द्वारा स्थापित मशीनरी से नही बनता बल्कि वह ऐसे सिद्धांतोऔर निकायों पर टीका होता है जो पूंजीवाद को सही ठहराते है | उसने कहा की स्कूल , कालेज , धर्म , चर्च आदि द्वारा ऐसी मान्यताओं को बढ़ावा दिया जाता है जिससे यह प्रतीत हो की पूंजीवाद ही प्रगती का एकमेव तरीका है | वैश्विक अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करते हुए भी यह पाया गया है की अल्प विकसित देशों को यह विश्वास कराया जाता है की विकसित देशों पर निर्भर रहकर ही उनका विकास संभव है | इस प्रकार जहाँ विकसित देश विकास शील देशों का शोषण करते हैं वहीं विकासशील देशों मे अल्प विकास होता है | कई विचारकों ने यह सिद्ध किया है की यदि पिछड़े देश अपनी घरेलू अर्थव्यवस्था के विकास पर ध्यान दें तो उनका अल्पविकास ख़त्म हो सकता है पर विकासशील देश अपने डर के कारण इस व्यवस्था को तोड़ना नही चाहते| उनपर विकसित देशों के विचारकों का ऐसा असर है की वह पूंजीवादी निर्भरता को ही एकमात्र मार्ग मान चुके है|
मार्क्सवादियों की तरह ही पर्यावरण विदों ने भी यह विचार व्यक्त किया है की आज का विश्व आर्थिक प्रगति के मिथक को ही सत्य मान बैठा है| अधिकतर विकसित देशों ने इस बात का विचार रखा है की जीडीपी की बढ़त से ही देश की प्रगति का अनुमान होता है परंतु पर्यावरण विदों ने इस बात का खंडन किया और कहा की कोई भी प्रगति जो पर्यावरण को क्षति पहुचाए वो भविष्य मे विनाशकारी होगी , उन्होने इस प्रकार सरकारों का ध्यान हरित अर्थव्यवस्था की ओर दिलाया जहाँ आर्थिक उन्नति को पर्यवरण संरक्षण से जोड़ दिया गया | इस कारण आज पेट्रोल ,कोयले की जगह सौर्य , पवन और जल उर्जा जैसे अपरंपरागत स्रोतों पर ध्यान दिया जा रहा है | भूटान जैसे छोटे से देश ने इस ओर एक महत्वपूर्ण कदम उठाया है , उसने मानव विकास सूचकांक की जगह मानव खुशहाली सूचकांक को अपनाया है जहाँ आर्थिक प्रगति को मानवीय जीवन दशाओं से जोड़ कर देखा जाता है |
आज विश्व की अधिकतर समस्याएँ यदि ध्यान से देखी जाएँ तो कहा जा सकता है की उनका आधार किसी ना किसी बेड़ी से जुड़ा हुआ है| वर्तमान मे यदि हम आतंकवाद को देखें तो पाएँगे की कैसे मध्यकालीन सोच को लागू करने के लिए तालिबान जैसे गुट आतंक का रास्ता अपनाते हैं | वो शरीयत के पुराने नियमों को बदलने देना नही चाहते, कुछ तो उनकी कट्टरवादिता के कारण और कुछ उनके स्वार्थ के कारण | वे स्वयं तो बेड़ियों से जकड़े हुए हैं और वे इसी कड़ी मे पूरे विश्व को बाँधने का सपना देखते हैं | मलाला यूसुफजई जैसे जाग्रत लोग जो इन बेड़ियों को तोड़ना चाहते हैं उन्हे ये आतंकी अपना विरोधी समझ कर ख़त्म कर देना चाहते हैं ताकि कोई उनके विचार , उनके आस्तित्व पर ही सवाल ना उठा दे| तानाशाही सरकारें भी जनता को ऐसे ही झूठे विचारों से बाँध कर रखती हैं जिससे उनका विरोध ना हो सके |
यह सामाजिक बेड़ियाँ और मिथ्या चेतना आख़िर क़्यों बनाए गये ? अधिकतर यह देखा गया की इनका प्रयोग जनता को किस भय मे बाँधे रखना था और इनका नकारात्मक प्रयोग ही हुआ परंतु कुछ ऐसे उदाहरण भी हैं जो बताते हैं की इन बेड़ियों का सकारात्मक प्रयोग भी हुआ | जब समाज मे राज्य की स्थापना नही हुई थी तब ईश्वर् और प्राकृतिक शक्तियों के भय द्वारा ही समाज मे एक व्यवस्था बनाई गयी ,इससे समाज मे अराजकता ख़त्म हुई और आपसी बंधुत्व बढ़ा, इस प्रकार एक कृत्रिम भय द्वारा एक वास्तविक व्यवस्था का निर्माण इसके सकारात्मक प्रयोग का उदाहरण है |भय से जुड़ी शृंखलाओं की शुरुआत भले ही एक नियमित समाज की स्थापना के लिए हुई परंतु स्वार्थ ने आगे चलकर इसे उत्पीड़न का साधन बना दिया| इस प्रकार बेड़ियाँ स्वयं मे बुरी नही है परंतु उनका औचित्य क्या है यह मायने रखता है|
इस प्रकार हमने देखा की कैसे अदृश्य कड़ियाँ हमे सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूपों मे बाँधे रखती है| ये बेड़ियाँ ऐसी होती है की हम उन्हे किसी और से पाते है फिर हम स्वयं किसी और को इसमे बाँध देते है, इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी ये शृंखला बनी रहती है | ये कड़ियाँ कलाओं और साहित्य को एकाकी बना देती हैं जिससे हमारी सोच भी कुंठित हो जाती है , जहाँ स्‍वतंत्र चिंतन की कोई जगह नही होती | ये बेड़ियाँ तोड़ने के लिए ज़रूरी है की कोई इनका विरोध करे, लोगों मे इनके प्रति विरोध जगाए और फिर क्रांति लाकर इन्हे तोड़ दे | आधुनिक काल मे प्रगति के लिए ज़रूरी है की हम इन बेड़ियों से आज़ाद हो, नयी दिशा मे देखें , नये विचारों को खोजें यदि हम ऐसा कर पाए तभी हम समावेशी विकास , महिला मुक्ति , हरित पर्यावरण, स्वस्थ समाज का सपना पूरा कर पाएँगे| जिस प्रकार रत्नावाली ने तुलसीदास की आँखों पर पड़ा वासना का परदा निम्न लिखित शब्दों द्वारा उठाया था वैसे ही हमे भी नयी सोच के मंत्र द्वारा अपनी सोच को स्वतंत्र करना होगा |
"हाड़ माँस को देह मम, तापर जितनी प्रीति।
(You have such love for my body of bones and flesh)
तिसु आधो जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भवभीति।।"
(if you had half of it in the lord, you would have got salvation )

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