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प्रोद्योगिकी पर अति निर्भरता मानव विकास को बढ़ावा देगी

मानव विकास की परिभाषा हमेशा से ही विचार विमर्श का विषय रही है | कुछ जानकार इसे देश की आर्थिक संवृद्धि से जोड़ते हैं तो कुछ इसे मानव की खुशहाली से मापते हैं | पैमाना जो भी हो पर विकास का मूल मंत्र यही है की मानव अपने जीवन में कितनी स्वतंत्रता का अनुभव करता है , वह अपने हित के लिए साधन जुटाने में कितना सम्पन्न है  और वह समय , परिस्तिथि , पर्यावरण आदि के आधार पर स्वयं को कितना अनुकूलित कर सकता है | यदि मानव के पास उपरोक्त शक्तियां और अधिकार हैं तभी सही मायने में उसे विकसित कहा जाना चाहिए | प्रोद्योगिकी की मानव विकास में अहम् भूमिका रही है |तकनीकी उन्नति के कारण ही आज असाध्य रोगों का इलाज संभव है , घर बैठे बैठे ज्ञान अर्जन हो सकता है , छण भर में लम्बी दूरियां तय करी जा सकती हैं, छुदा मिटाने हेतु पल भर में ही तैयार होने वाले व्यंजन आज हमारे पास हैं और यहाँ तक की भविष्य की गतिविधियों की गणना भी सुपर कंप्यूटर द्वारा करी जा रही हैं | तकनीकी अनुप्रयोग ने मानव के विकास में गति ला दी है परन्तु क्या अति निर्भरता से इसमें तेजी आएगी , इसके लिए उस मूल्य को समझाना भी आवशयक है जो हमने इस प्रगति

सच्चा ज्ञान यह जान लेने में है कि आप कुछ नहीं जानते

सुकरात ने कहा था कि आप तभी सच्चे ज्ञान को पा सकते हैं जब आप किसी पूर्वाग्रह में न फसे हो। कुछ नया सीखने के लिए बहुधा पुरानी मान्यताओं से अलग सोचना ही पड़ता है। जब मनुष्य ये मान ले की उसने सब कुछ जान लिया है और नए ज्ञान की खोज करना बंद कर दे तो उसकी प्रगति वहीँ रुक जाती है। समय के साथ उसके ज्ञान पर धूल चढ़ जाती है और फिर नए समय से कदम न मिला पाने के कारण उस ज्ञान और व्यक्ति दोनों का ही आस्तित्व सन्कट में पड़ जाता है । प्रगति मनुष्य की हो, समाज की, विज्ञान की या फिर राज्य की वो इस बात पर ही टिकी होती है की पिछला कुछ भुलाया जाये और कुछ नया खोज जाये। जब आप यह मान लेते हैं कि आप के पास जो ज्ञान है वो सीमित है और समय के साथ वो खत्म जायेगा तब आप नए विचारों को खोजते हैं। बदलते समय के साथ आप स्वयं में बदलाव लाते हैं और फिर आप प्रगति करते हैं। जब आप यह मानने को तैयार हो जाएं की कोई भी ज्ञान शास्वत नहीं है , तभी आप नए समाज के निर्माता भी बनेंगे। नया ज्ञान न सिर्फ नयी सोच देता है बल्कि वह अच्छे/ बुरे, न्याय/ अन्याय आदि के मध्य भी नए विभाजन स्थापित करता है। सुकरात ने न्याय की परिभाषा करते हु

हम आतंकवाद से लड़ नहीं सकते, हमें इसके साथ ही रहना होगा

11 सितम्बर 2001 की वह सुबह अमरीकी लोगों के लिए आम ही थी जब तक की एक अपहृत विमान वैश्विक व्यापार की प्रतीक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से नहीं टकराया था। कुछ देर बाद ही एक दूसरा विमान इसी सेंटर की दक्षिणी ईमारत से टकराया और यहीं से इतिहास एक नयी दिशा में मुड़ गया। 9/11 के हमले से पूर्व विश्व आतंकवाद को एक छेत्रीय घटना के रूप में समझता आया था परंतु इस घटना ने आतंकवाद को वैश्विक रूप दे दिया । अब सम्पूर्ण विश्व इस खतरे के प्रति सचेत हुआ और इससे लड़ने की रणनीति बनाने लगा । आतंकवाद के प्रति बदले दृष्टिकोण ने इस बहस को जन्म दिया की आतंकवाद का खात्मा कैसे हो। क्या आतंकवाद से लड़कर उसे ख़त्म किया जाये या उसके साथ रहते हुए ऐसे कारणों को ख़त्म किया जाये जिससे यह उपजता है । प्रश्न यह है कि क्या आतंकवादियों को ख़त्म करने से आतंकवाद समाप्त होगा या फिर इसका समाधान कुछ और है। इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमे सबसे पहले आतंकवाद को समझना होगा। मूलतः आतंकवाद की उत्पत्ति 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति से जोड़ी जाती है जब तानाशाह राब्सपीयर ने आतंक का शासन लागू किया था फिर आगे चलकर 19वीं और 20वीं सदियों में इसने राष्ट्रवादी व

जो घर स्वयं में ही विभाजित हो वह खड़ा नहीं रह सकता |

घर एक ऐसी जगह है जहां परिवार रहते हैं । परिवार केवल इंसानों के साथ रहने से ही नहीं बल्कि उनके आपसी जुड़ाव से बनते हैं ।  आपस के प्यार भरे रिश्ते , नोक झोंक और एक दूसरे का साथ निभाने का एहसास यही है जो परिवार को परिवार और घर को घर बनता है । घर में अलग अलग विचारों के कारण मतभेद हो सकते हैं पर जब मतभेद बढ़ कर विभाजन का कारण बन जाते हैं तो घर टूटने लगते हैं । हमारे महाकाव्य गवाह हैं की कैसे रावण विभीषण के मतभेदों  के चलते लंका ध्वस्त हो गयी  और पांडव- कौरव विचार विभाजन से  कुरुक्षेत्र की भूमि सम्बन्धियों  के रक्त से पट गयी |परिवारों में जब मतभेद होते हैं तो परिवार की सोच परिष्कृत होती है और परिवारों के निर्णय एकांगी नहीं होते परंतु जब मतभेद विभाजन का रूप ले लें तो प्रगति रुक जाती है और परिवार दिशाहीन हो जाते हैं। परिवारों के संयोग से ही समाज बनते हैं और समाज में मतभेदों की संख्या परिवारों की संख्या के साथ साथ बढ़ती  जाती है। समाज में वैचारिक मतभेदों के साथ साथ लैंगिक, धार्मिक, जातीय, नस्लीय और आर्थिक मतभेद भी होते हैं पर यही मतभेद या छोटे अंतर उग्र रूप लेकर विभाजन में बदल जाते हैं । भारत

भारत नई विश्व व्यवस्था में एक अनिच्छुक भागीदार ?

सन् १६४८ में सम्पन्न वेस्टफालिया संधि द्वारा राष्ट्र राज्यों की मान्यता विश्व के प्रमुख कर्ताओं के रूप में स्थापित हुई । राष्ट्र राज्यों द्वारा संचालित नयी विश्व व्यवस्था इस बात पर आधारित थी की हर राज्य दूसरे राज्य की गरिमा का ख्याल रखेगा और किसी भी प्रकार उसकी सम्प्रभुता में हस्तछेप नहीं करेगा । यह विश्व व्यवस्था विश्व में स्थापित शक्ति की संरचना , राज्यों के  मध्य आपसी सम्बन्ध, राज्यों की पद सोपानिकता तथा उनके आपसी व्यवहार का समुच्चय है । आधुनिक विश्व में भारत इस विश्व व्यवस्था में एक प्रमुख भागीदार के रूप में उभर रहा है , हालांकि इतिहास से प्राप्त कुछ समाजिक-आर्थिक समस्याएं इनमे बाधा  उत्पन्न करती  हैं। भारत का वर्तमान विश्व व्यवस्था में योगदान उसके संसाधनों के आलोक में तथा छेत्रीय परिस्तिथियों के सन्दर्भ में समझाना चाहिए ।भारत तेजी से प्रगति करती अर्थव्यवस्था है और साथ ही एक बढ़ता जनांकिकीय लाभांश भारत को त्वरण प्रदान कर रहा है , इससे निश्चित ही भारत जो अभी एक अनिच्छुक सा भागीदार लगता है वो आने वाले विश्व में एक मार्गदर्शक बनकर उभरेगा ।  भारत एक ऐसा देश है जो हमेशा से ही शांति क

Current governance framework is not geared up to handle efficiency requirements of ‘communication’ in the ‘information-age’

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Introduction to ‘information age’ ‘James Bond’ a fictional character well known in the current society. James Bond is not only a character but it also symbolises the current trends in society and whatever which is related to the society. The secret agent is a spy for whom the only important thing is the information. He works, lives and even risks his life for getting information. His magnificent tools like his micro computing gadgets, hidden communication devices, his modern spy watch etc showcase the presence of information and related technologies in our world. Not only James Bond but the series like Mission Impossible, matrix, XXX etc. also showcase the same trend.                                        James Bond Series Poster The above examples signify the importance of information in the current society where everyone is hungry for information. Today we see that we are more interested in Facebook updates rather than our food, children are busy in internet surfing