भारत में समावेशिता - अभी भी एक दूरस्थ स्वप्न ?



समावेशन एक ऐसा दर्शन है जिसकी शिक्षा हमें रामायण के बहुत से अंशों में मिलती है । राम शबरी के जूठे बेर खाकर सुग्रीव का पता पाते हैं , जटायु और उनकी मैत्री के कारण उन्हें रावण द्वारा सीता हरण का ज्ञान होता है , हनुमान के होने से उन्हें लंका का मार्ग पता चलता है , जांबवंत लक्षमण के मूर्छित होने पर सुषेण वैद्य का ध्यान दिलाते हैं , वहीँ नल नील रामेश्वरम सेतु का निर्माण कर राम की सेना को समुद्र पार कराते हैं । संपूर्ण रूप में देखें तो राम ने शुद्र, कबीलाई जन , पशु , पक्षी आदि सभी को अपने साथ मिला लिया जिसके फलस्वरूप रावण पर उनकी विजय हुई । समावेशन यही है जहाँ समाज व राज्य हर तबके को शक्ति प्रदान करें , उसके विचारों- भावनाओं  को  समझें और उसे आगे बढ़ कर कुछ करने का मौका दें , फिर यही समावेशी प्रयास समाज की प्रगति सुनिशिचित करेगा। 

इतिहास कई मिसालों से भरा हुआ है जहाँ समावेशन की शक्ति ने बड़ी बड़ी दुर्लभताओं को भी प्राप्त कर लिया । प्राचीन काल में गौतम बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के विपरीत सभी को धम्म में स्वीकार किया जिससे बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं से  परे भी फ़ैल गया , मध्यकाल में अकबर ने अपनी विचारशाला में तमाम धर्म विचारकों को बहस करने का मौका दिया जिसके आधार पर उसने सुलह-ए-कुल की नीति का विकास किया , आगे चलकर महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता आंदोलन में कृषक, महिला , दलित आदि सभी अनछुए वर्गों को जोड़ा और इससे आंदोलन को अतिशय बल मिला । 

स्वतंत्रता  प्राप्ति के उपरान्त हमारे नेताओं ने जिस राज्य व समाज की नींव रखी उसमे उन्होंने समावेशिता पर मूल बल दिया जिसकी झलक संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित 'समानता ','स्वतंत्रता ', 'सामाजिक आर्थिक न्याय ', 'गरिमा','बन्धुत्व' आदि शब्दों में मिलती है । सरकार व नागरिक समाज दोनों का ही प्रयत्न रहा है की हर छेत्र व तबके का मुख्यधारा में प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो। सरकार ने जहाँ आरक्षण , विकेंद्रण ( लोक सेवा ), विकेंद्रीकरण (पंचायती राज ) आदि द्वारा समावेशी नीतियां लागू की, वहीँ नागरिक समाज ने संसाधन नियंत्रण हेतु नव समाजिक आंदोलन (चिपको, नर्मदा बचाओ, NGO ) व राजनीतिक गतिशीलता (हित समूह) को  बढ़ावा दिया है । 

 आजादी के ६७ वर्षों बाद भी यह मंथन करने की बात है की क्या सही समावेशन आ पाया है या यह  अभी भी एक दूरस्थ  स्वप्न है ? हमें यह समझना आवश्यक है की समाजिक, राजनैतिक , आर्थिक व अन्य आधारों पर समावेशन की भारत में क्या स्तिथि है । इस स्तिथि को समझने हेतु हम पहले भारतीय समाज व उसके ढांचे का अध्ययन करेंगे । भारतीय समाज ऐतिहासिक रूप से वर्ण व्यवथा , ऊंच नीच व जाती प्रथा के कारण विभजित रहा । छुआछूत आदि के कारण बहुत से अंत्यज समूह उत्पादक कार्यों से पृथक रहे  जिससे उनकी आर्थिक गतिशीलता जाती रही । इससे निचले समूह आर्थिक रूप से कमजोर ही रहे तथा ऊपरी समुदाय आर्थिक लाभांश को प्राप्त करते रहे । इसी के कारण भारत में जो वर्ग विभाजन(मार्क्सवादी) बना वह जाति सोपानिकता के समरूप ही रहा । निचली जातियां ही कम आर्थिक सामर्थ्य वाले कार्यों में लगी रही और ऊपरी जातियां तरक्की करती रहीं । तदुपरांत अंग्रेजों ने इसी समाजिक विभाजन से लाभ उठाया और "फूट डालो राज करो " की नीति द्वारा हम पर २०० सालों  तक राज किया। 

अंत्यज जातियों के सृदश ही स्त्री की न्यूनतम महत्ता भी ऐतिहासिक लक्षणों में से एक है । जिस प्रकार अंत्यज जातियों को विभिन्न धार्मिक आधारों पर नीचे रखा गया वैसे ही स्त्रियों को एक निचले समूह की तरह ही देखा गया । पर्दा , बहु पत्नी  , जोहर , सती आदि  प्रथाओं ने उनकी स्तिथि का अत्यधिक अवमूल्यन किया है । उनको  पारिवारिक , आर्थिक छेत्रों में निचला दर्जा दिया गया जिसके कारण उनमे मानसिक कमजोरी भी घर करती गयी । इसी तरह हमारा समाज धार्मिक, नृजातीय आदि आधारों पर भी विखण्डित दिखता है । आधुनिक समय में भी सांप्रदायिक दंगे, नृजातीय झड़पें , मंदिर मस्जिद विवाद इस बात के साक्षी हैं की भारत में समाजिक समावेशित का पूर्ण प्रसार विविध प्रयासों के बाद भी अधूरा है । आधुनिकीकरण के आने पर भी पुरातन परिपाटियां टूटी नहीं हैं । 

हालांकि हमारा समाज ,  वार्गिक , लैंगिक , नृजातीय , भाषाई  आदि आधारों पर विभाजित दीखता है पर कुछ और विश्लेषणों के आधार पर कुछ सकारात्मक लक्षण भी  दिखते हैं ।  एक राष्ट्र के रूप में यदि हम देखें तो  हमे एक प्रकार की समाजिक समावेशिता दिखाई पड़ती है । हमारी बहुवादी संस्कृति का विकास इन विखंडनीय तत्वों के मध्य हुआ फिर भी  हमने अनेकता में एकता को खोज लिया । भारतीय स्वतंत्रता के समय जिन पश्चिमी विचारकों ने इसके बाल्कन छेत्र की तरह टुकड़ों में बंट जाने की बात की थी वह भी इसकी अखंडता से अचंभित है तथा उन्होंने भारतीय राज्य को 'समावेशी संघ' भी कहा है। वहीँ २०११ के जनगड़ना आंकड़ों में महिला साक्षरता दर ६५% दिखती है जो यह बताती है की समाज ने महिला सशक्तिकरण की ओर कदम बढ़ाये हैं । 

राजनैतिक छेत्र में भी समाजिक विखंडन  व्याप्त है । हमारे राजनैतिक दल विचारधाराओं से ज्यादा धर्म , जातिवाद, वर्ण आदि पर आधारित हैं । वोट बैंक निर्माण में धर्म, नस्ल , छेत्र , जाति , वर्ण आदि की प्रमुख भूमिका विगत वर्षों में देखी गयी है । इससे बहुदा यह देखा जाता है की एक विशिष्ट समूह केंद्रित पार्टी सत्तारूढ़ होने पर उसी समुदाय को लाभान्वित करती है । इससे सामुदायिक आधार पर टकराव बढ़ते हैं जो कभी कभी साम्प्रदायिकता का रंग ले लेते हैं । परन्तु रजनी कोठरी जैसे कुछ विचारकों ने जाति  पर आधारित इन विखण्डनों को सकारात्मक रूप में भी देखा  है । उनके अनुसार राजनीति में 'जाति' के प्रवेश ने ही अंत्यज जातियों की राजनैतिक मंचों पर उपस्तिथि बढ़ा दी है । राजनैतिक समावेशिता का यह अच्छा उदाहरण है की दलित समुदाय से सम्बंधित महिला 'उत्तर प्रदेश'  राज्य की बहुमत समर्थित मुख्य मंत्री बनीं । आरक्षण नीतियों के कारण दलित व अन्य निचले समुदायों का प्रशासनिक सेवाओं में भी  योग हुआ है । 
राजनैतिक धरातल पर 73वें , 74वें संविधान संशोधनों द्वारा स्थापित पंचायती राज्य व नगर निगम व्यवस्था ने तृणमूल स्तर पर  राजनैतिक समावेशन को बढ़ावा दिया है । इससे न केवल निचली जातियों , पिछड़े वर्गों , महिलओं को राजनीति में आरक्षित स्थान मिला है बल्कि ऐसे छेत्रीय मुद्दों को भी महत्व मिला है जो केंद्रीकृत प्रशासनिक व्यवस्था में सही से हल नहीं हो पाते थे। हालांकि यह भी कहना जरुरी है की राज्य सरकारों द्वारा पर्याप्त वित्तीय  शक्तियां हस्तांतरित न करने से इनकी प्रभाविकता  सीमित है ।        

आर्थिक रूप में भी समावेशन को समझाना जरुरी है क्यूंकि इससे ही पता चलता है की समाज में संसाधनों का वितरण कैसा है । आर्थिक समीक्षा २०१५-१६ के अनुसार भारत के ८०% उत्पादक संसाधन ऊपरी २०% जनसँख्या के नियंत्रण में है । विरूपित कर ढाँचे के कारण अर्थ सहायता (सब्सिडी) का  लगभग ५०-६०% हिस्सा साधन संपन्न लोगों की तरफ प्रवाहित होता है । बिजली का ८०% उपभोग भी ऊपरी २४% लोग ही करते हैं । यह कुछ आंकड़ें बताते हैं की किस प्रकार हमारा आर्थिक ढांचा समावेशी नहीं हो पाया है । एक तरफ तो हम वैश्विक शक्ति बनने  की बात करते हैं वही दूसरी तरफ ४०-५०% जच्चा बच्चा कुपोषण व अल्पभारिता से ग्रस्त हैं । इस दशा के कई कारण हमारे औपनिवेशिक इतिहास में ही छुपे हुए हैं , हमे अंग्रेजों से ऐसी टूटी अर्थव्यवस्था मिली जिसको पुनः सक्रिय करने हेतु ही हमें अपार साधन  व्यय करने पड़े । एक तरफ तो हमे विकसित विश्व से पक्षपात वाली सहायता मिली वहीँ हमारे अंदर के  भ्रष्टाचार ने हमारी आर्थिक विषमताओं को बढ़ा दिया , इसी वजह से समाज का एक तिहाई हिस्सा दरिद्रता से जूझ रहा है ।

आर्थिक छेत्र में समावेशन  लाने हेतु सरकार ने कृषि योजनाओं पर बल दिया । मध्यम व लघु उद्योगों हेतु विशेष ऋण वितरण की व्यवस्था की , कबीलाई उत्पादों हेतु विभिन्न नियम बनाए तथा प्रशासनिक जटिलताओं को दूर करने हेतु आधुनिक तकनीक का सहारा भी लिया । इसी  क्रम में वर्तमान सरकार ने 'जैम(JAM ) ' तकनीक पर आधारित जनधन  योजना , पहल योजना , प्रत्यक्ष लाभ वितरण आदि की शुरुआत करी ।  जनधन योजना के अंतर्गत सरकार ने हर परिवार हेतु एक बैंक खाते की व्यवस्था की जिससे सरकार द्वारा दी गयी आर्थिक सहायत सीधे उन तक पहुचे। इससे  उनकी चयन स्वतंत्रता (अमर्त्य सेन) बढ़ेगी और वे अपने विकास का पथ स्वयं तय कर सकेंगे । वहीँ कौशल विकास जैसे कार्यक्रम पिछड़े तबके को  भी विशेष प्रशिक्षण देते हैं जिससे वह स्वतंत्र उद्द्यमी के रूप में भी विकास कर सकें । इनके साथ ही 'सबला', 'समाख्या' , 'महिला बैंक' , 'निर्भया  कोष' द्वारा महिलाओं हेतु भी वित्तीय संसाधन मुहैया कराये गए हैं ताकि उनका आर्थिक समावेशन बढ़ सके । 

अभी तक हमने देखा की हमारे भारत में किस प्रकार सरकार व नागरिक समाज ने समावेशिता लाने  हेतु विभिन्न कार्य किये हैं परन्तु यहाँ यह कहना  जरुरी है की यह प्रयास तभी सफल होंगे जब हर भारतीय में "समावेशी सोच' का विकास हो । समावेशी सोच वह है जो मनुष्य की समानता को समझे , नारी का सम्मान करे , आर्थिक उन्नति को पर्यावरण के तराजू में तौलकर देखे और दूसरे के हितों को अपने लाभ से ऊपर समझे । प्लेटो ने 'रिपब्लिक' में कहा था की राज्य ओक के वृक्षों से नहीं बल्कि उसमे रहने वाले व्यक्तियों से बनता है । इसलिए राज्य का स्वरुप उसके नागरिकों की सोच से ही बदलेगा । इसके लिए  ऐसी शिक्षा व्यवस्था की आज जरुरत है जो अर्थ , काम, धर्म , मोक्ष के पुरुषार्थों में 'सर्वजन हिताय ' के पुरुषार्थ को जोड़े । वैयक्तिक रूप से आगे बढ़कर जो सामूहिक रूप में सोचना सिखाए ,  प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग को बढ़ावा दे । इसी आधार से निकले नेता शक्ति संचयन की जगह  शक्ति विस्तारण का विचार रखेंगे और ऐसे ही हमे सफल समावेशी लोक तंत्र मिलेगा । समावेशी सोच के द्वारा ही हम ऐसे समाज का निर्माण कर पाएंगे जिसकी कल्पना गुरुदेव टैगोर ने निम्न  पंक्तियों में की थी :

"जहां चित्‍त भय से शून्‍य हो 
जहां हम गर्व से माथा ऊंचा करके चल सकें
जहां ज्ञान मुक्‍त हो 
जहां दिन रात विशाल वसुधा को खंडों में विभाजित कर 
छोटे और छोटे आंगन न बनाए जाते हों "

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सन्दर्भ :
१) अमर्त्य स्ने (डेवलपमेंट ऐस फ्रीडम )
२) एम के गांधी (स्वराज)
३) जीन द्रेज़ , सेन (डेवलपमेंट इन इंडिया )
४) रजनी कोठरी (पॉलिटिक्स इन इंडिया )
५) गुहा रामचन्द्र (इंडिया आफ्टर गांधी )६)

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