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Showing posts from June, 2016

भारत नई विश्व व्यवस्था में एक अनिच्छुक भागीदार ?

सन् १६४८ में सम्पन्न वेस्टफालिया संधि द्वारा राष्ट्र राज्यों की मान्यता विश्व के प्रमुख कर्ताओं के रूप में स्थापित हुई । राष्ट्र राज्यों द्वारा संचालित नयी विश्व व्यवस्था इस बात पर आधारित थी की हर राज्य दूसरे राज्य की गरिमा का ख्याल रखेगा और किसी भी प्रकार उसकी सम्प्रभुता में हस्तछेप नहीं करेगा । यह विश्व व्यवस्था विश्व में स्थापित शक्ति की संरचना , राज्यों के  मध्य आपसी सम्बन्ध, राज्यों की पद सोपानिकता तथा उनके आपसी व्यवहार का समुच्चय है । आधुनिक विश्व में भारत इस विश्व व्यवस्था में एक प्रमुख भागीदार के रूप में उभर रहा है , हालांकि इतिहास से प्राप्त कुछ समाजिक-आर्थिक समस्याएं इनमे बाधा  उत्पन्न करती  हैं। भारत का वर्तमान विश्व व्यवस्था में योगदान उसके संसाधनों के आलोक में तथा छेत्रीय परिस्तिथियों के सन्दर्भ में समझाना चाहिए ।भारत तेजी से प्रगति करती अर्थव्यवस्था है और साथ ही एक बढ़ता जनांकिकीय लाभांश भारत को त्वरण प्रदान कर रहा है , इससे निश्चित ही भारत जो अभी एक अनिच्छुक सा भागीदार लगता है वो आने वाले विश्व में एक मार्गदर्शक बनकर उभरेगा ।  भारत एक ऐसा देश है जो हमेशा से ही शांति क

Current governance framework is not geared up to handle efficiency requirements of ‘communication’ in the ‘information-age’

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Introduction to ‘information age’ ‘James Bond’ a fictional character well known in the current society. James Bond is not only a character but it also symbolises the current trends in society and whatever which is related to the society. The secret agent is a spy for whom the only important thing is the information. He works, lives and even risks his life for getting information. His magnificent tools like his micro computing gadgets, hidden communication devices, his modern spy watch etc showcase the presence of information and related technologies in our world. Not only James Bond but the series like Mission Impossible, matrix, XXX etc. also showcase the same trend.                                        James Bond Series Poster The above examples signify the importance of information in the current society where everyone is hungry for information. Today we see that we are more interested in Facebook updates rather than our food, children are busy in internet surfing

भारत में समावेशिता - अभी भी एक दूरस्थ स्वप्न ?

समावेशन एक ऐसा दर्शन है जिसकी शिक्षा हमें रामायण के बहुत से अंशों में मिलती है । राम शबरी के जूठे बेर खाकर सुग्रीव का पता पाते हैं , जटायु और उनकी मैत्री के कारण उन्हें रावण द्वारा सीता हरण का ज्ञान होता है , हनुमान के होने से उन्हें लंका का मार्ग पता चलता है , जांबवंत लक्षमण के मूर्छित होने पर सुषेण वैद्य का ध्यान दिलाते हैं , वहीँ नल नील रामेश्वरम सेतु का निर्माण कर राम की सेना को समुद्र पार कराते हैं । संपूर्ण रूप में देखें तो राम ने शुद्र, कबीलाई जन , पशु , पक्षी आदि सभी को अपने साथ मिला लिया जिसके फलस्वरूप रावण पर उनकी विजय हुई । समावेशन यही है जहाँ समाज व राज्य हर तबके को शक्ति प्रदान करें , उसके विचारों- भावनाओं  को  समझें और उसे आगे बढ़ कर कुछ करने का मौका दें , फिर यही समावेशी प्रयास समाज की प्रगति सुनिशिचित करेगा।  इतिहास कई मिसालों से भरा हुआ है जहाँ समावेशन की शक्ति ने बड़ी बड़ी दुर्लभताओं को भी प्राप्त कर लिया । प्राचीन काल में गौतम बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था के विपरीत सभी को धम्म में स्वीकार किया जिससे बौद्ध धर्म भारत की सीमाओं से  परे भी फ़ैल गया , मध्यकाल में अकबर ने

मूर्खों को ऐसी श्रृंखलाओं से मुक्त कराना दुष्कर होता है जिनसे वे भयभीत होते हैं ।

18वीं सदी में जब विश्व एक नींद से जाग रहा था और तर्क वितरक की क्षमता से अपने जीवन को नयी दिशा दे रहा था तब रूसो ने कहा की 'आज मानव सर्वत्र बेड़ियों से जकड़ा हुआ है'। उसके अनुसार 'तर्क वितर्क से भले ही मानव ने आर्थिक और राजनैतिक प्रगति कर ली है पर उसने अपनी स्वाभाविक पाशविकता को छोड़ दिया है , उसने स्वछंदता का त्याग दिया है और खुद को कला की सुंदरता से विमुख कर लिया है ।' रूसो का कथन अपने आस पास के समाज का विश्लेषण करता है जहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण के कारण लोग अंतर्दृष्टि को छोड़ कर केवल प्रमाण और स्थापित नियमों को ही सत्य मान लेते है । वर्तमान आधुनिक समाज में भी यह देखा जाता है की मानव सामाजिक , राजनीतिक , आर्थिक और सांस्कृतिक बेड़ियों में बंधा हुआ है , यह बेड़ियां अदृश्य है पर ये उसके रोज मर्रा के जीवन को प्रभावित करती चलती है । स्वतंत्र चिंतन की जगह स्थापित प्रथाओं व अंधविश्वासों ने ले ली है , इससे हमे आर्थिक प्रगति तो मिली है पर नयी सोच का विकास नहीं हुआ । हमारे पूर्वजों ने जिन स्वतंत्र विचारों को खोज था उन्हें आज हम सर्वमान्य सत्य मानकर नए विचारों के अन्वेषण से बच रहे हैं

जरुरी नहीं की हर वस्तु जो गिनी जा सकती है मायने रखती हो , और हर वस्तु जो मायने रखती हो वह गणना योग्य हो

​ भारत के प्राचीन  दर्शन शास्त्र में असत्कार्यवदा व सत्कार्यवदा के बीच में एक बहस दिखाई पड़ती है । असत्कार्यवदा के अनुसार पहले किसी विचार  के रूप में कार्य जन्म लेता है और फिर वो वास्तविकता में घटित होता है वहीँ सत्कार्यवदा का दर्शन मानता है की पहले कार्य होता है फिर उससे सम्बंधित भाव की उत्पत्ति होती है । उपरोक्त दर्शन हमें विचारों के निर्माण के बारे में शिक्षा देते हैं की आखिर हमारे विचार और विश्वास कैसे जन्म   लेते हैं । आधुनिक काल में यह बहस  तो समाप्त हो गयी है परन्तु इस बात पर नयी चर्चा शुरू हुई है की कंप्यूटर की इस दुनिया में जहाँ आंकड़ों की भरमार है वहां सही सूचना का निर्माण कैसे हो । कौन से ऐसे  मानक हो जो हमारे विचारों और कार्यकलापों के निर्माण के लिए सही दिशा दें । क्या हम केवल उन्ही विचारों को मान कर चलें जो प्रमाणित है या फिर हम उन्हें तरजीह  दें जो प्रमाणित नहीं है परन्तु उनका भाव प्रगति मूलक हो । विचारों का सही दिशा में होना आवश्यक है क्यूंकि इसी की पीठिका पर समाज बनता है  और फिर समाज राज्य का ढांचा बनाता है । यह अन्वेषण करने का मुद्दा है की आधुनिक युग में हमारे सोच