सच्चा ज्ञान यह जान लेने में है कि आप कुछ नहीं जानते

सुकरात ने कहा था कि आप तभी सच्चे ज्ञान को पा सकते हैं जब आप किसी पूर्वाग्रह में न फसे हो। कुछ नया सीखने के लिए बहुधा पुरानी मान्यताओं से अलग सोचना ही पड़ता है। जब मनुष्य ये मान ले की उसने सब कुछ जान लिया है और नए ज्ञान की खोज करना बंद कर दे तो उसकी प्रगति वहीँ रुक जाती है। समय के साथ उसके ज्ञान पर धूल चढ़ जाती है और फिर नए समय से कदम न मिला पाने के कारण उस ज्ञान और व्यक्ति दोनों का ही आस्तित्व सन्कट में पड़ जाता है । प्रगति मनुष्य की हो, समाज की, विज्ञान की या फिर राज्य की वो इस बात पर ही टिकी होती है की पिछला कुछ भुलाया जाये और कुछ नया खोज जाये।

जब आप यह मान लेते हैं कि आप के पास जो ज्ञान है वो सीमित है और समय के साथ वो खत्म जायेगा तब आप नए विचारों को खोजते हैं। बदलते समय के साथ आप स्वयं में बदलाव लाते हैं और फिर आप प्रगति करते हैं। जब आप यह मानने को तैयार हो जाएं की कोई भी ज्ञान शास्वत नहीं है , तभी आप नए समाज के निर्माता भी बनेंगे।

नया ज्ञान न सिर्फ नयी सोच देता है बल्कि वह अच्छे/ बुरे, न्याय/ अन्याय आदि के मध्य भी नए विभाजन स्थापित करता है। सुकरात ने न्याय की परिभाषा करते हुए कहा था कि केवल अच्छे के साथ अच्छा और बुरे के साथ बुरा करना न्याय नहीं होता बल्कि समय और परिस्तिथियों के अनुसार लिया गया निर्णय ही सही न्याय होता है। अच्छे मित्र को क्रोध के समय उसका अस्त्र लौटा देना न्याय नहीं होगा, और न ही किसी शत्रु के परिवार की हत्या न्याय होगी। न्याय समाज और समय के साथ बदलता है और जो संस्कृति इस बात को समझती है वही अनश्वर होती है।
 
तारीख गवाह है कि जिन भी समाजों में जड़ता आयी समय उन्हें दण्डित करता चला। अपनी प्राचीन उन्नति के सपने में सोया हुआ भारत जब 17वीं  सदीं में अपनी प्राचीन संस्कृति, नियम क़ानून और परंपराओं को गाता था तब पश्चिम के देश जाग रहे थे और नए  ज्ञान विज्ञान को खोज रहे थे। अपनी जड़ता और कूप मंडूक्ता के कारण ही भारत समय से पीछे रह गया और इसी कारण उन्नत अंग्रेजी साम्राज्य हम पर 200 साल तक राज्य करता रहा।
 
यदि आधुनिक भारत के निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर, गाँधी जी, गुरुदेव ठाकुर, राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले , सरोजिनी नायडू, रानी गिडालू आदि नए समय को दिशा न देते और पुरातन प्रथाओं से न लड़ते तो हिंदुस्तानियों में  अंग्रेजों से लड़ने हेतु मानसिक संबल कभी नही आता । आजादी की लड़ाई एक राज्य से ज्यादा उस ऊंच नीच के विचार से थी जो हमारे मन में घर कर गया था। अंग्रेजों को श्रेष्ठ मान लेना और अपने ही भाइयों को दलित और अस्पृश्य मान लेना , यही तो हमारी दासता का प्रमुख कारण था।

जड़ बुद्धि होना या पाश्चात्य ज्ञान को स्थायी मान लेना कट्टरता को भी बढ़ावा देता है। जब ज्ञान को तर्क वितर्क की तुला में रखे बिना उसे सालों साल चलने दिया जाता है तो कोई उसे बदलने की हिम्मत नहीं कर पाता । लोग अंध भक्ति में खो जाते हैं और फिर समाज दिशाहीन हो जाते हैं, ऐसी स्तिथि का लाभ उठाकर कुछ स्वार्थी लोग नेतृत्व में आते हैं और इसी सामाजिक जड़ता को बरकरार रख कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। अपने अगले बगल देखें तो हर समुदाय का कोई न कोई धार्मिक या राजनीतिक गुरु जरूर नजर आएगा।

इनमे से बहुसंख्यक केवल अपने स्वार्थ हेतु ही तमाम जनता को नए विचारों से पृथक रखकर पुरानी परंपराओं का यशज्ञान करते रहते हैं। भारत का एक राज्य  ' पुरातन अनिर्वाचित पंचायत ' के रोग में जकड़ा हुआ है जिसके अधिकतर आदेश महिला सशक्तिकरण के विरोधी नजर आते हैं। प्रेम विवाह जहाँ मृत्यु दंड का कारण हो सकता है और जहाँ भाई भी बहन को इज्जत के नाम पर मार सकते हैं। उस राज्य का गिरा हुआ लिंगानुपात और अविवाहित युवकों की बड़ी संख्या दिखाते हैं कि जड़ बुद्धि और अतार्किक परंपरा से कैसे संपूर्ण समाज भी पश्चगामी हो सकते हैं।

जब समाज से प्राचीन जड़ता दूर होती है और चेतना पूर्वाग्रहों से मुक्त होती है तभी नए विचारों का जन्म होता है। ऐसे में ही हमारे सामने ऐसे विकल्प उभर कर आते हैं जो हमारे जीवन को परिवर्तित करने की छमता रखते हैं । आज जिस समय के दौर से हम गुजर रहे हैं उस समय तो और भी जरुरी हो जाता है कि हम जड़ता को छोड़ें और कुछ नया सोचें। दो वैश्विक समस्याएं जो आज मानव जाति के लिए बड़ा संकट बन कर उभर रही हैं उनका अध्ययन इस विषय में सही होगा । ये समस्याएं हैं पर्यावरण संकट और आतंकवाद। क्या इन दोनों के उभरने का एक कारण मानसिक कूप मंडूक्ता व नए विचारों से अलगाव नही है।

18वीं सदी में जब आद्योगिक क्रान्ति शुरू हुई तब से लेकर आजतक कोयले का हो प्रयोग मशीनों और कारखानों में प्रमुखता से होता आया है। बिजली उत्पादन हो तो कोयला,  लौह पिघलना हो तो कोयला, रेल चलानी हो तो कोयला, और यहाँ तक की बारात में खाना बनाना हो तो भी कोयला। कोयले से ऐसा मानसिक जुड़ाव बन गया कि उसके अलावा हमने अन्य उपाय तब तक नहीं सोचे जब तक कोयले की आपूर्ति काम नहीं हो गयी और वैज्ञानिकों ने वैश्विक तापन के बारे में नहीं बताया ।

यह एक जड़ता ही थी जिसने सभी समस्याओं के हल को कोयले से ही जोड़ दिया। यदि हमने पहले ही कोयले से आसक्ति छोड़कर अन्य ऊर्जाओं के स्त्रोत खोजे होते तो यह तापन की नौबत कभी न आती। जब हमने इसका इलाज खोजा भी तो हम फिर परमाणु शक्ति के प्रति आसक्त हो गए । हमे यह समझना होगा की इस समस्या का हल केवल एक स्त्रोत से दूसरे स्त्रोत पर निर्भर हो जाना नहीं है बल्कि नित नए उपाय खोजना इसके लिए आवश्यक है ।

एक स्वर्णिम तस्वीर जो 21वीं सदी में उभर रही है वह यह की सरकारें अब विविध ऊर्जा स्रोतों पर ध्यान दे रही हैं और उनपर विकास और शोध को बढ़ावा दे रही हैं।। भारत सरकार की सौर ऊर्जा पहल, अंतरराष्ट्रीय सोलर गठबंधन, जैव ऊर्जा विकास, पवन ऊर्जा ऑफ शोर नीति, हाइब्रिड सौर-पवन ऊर्जा नीति, भूगर्भिक ऊर्जा शोध आदि कुछ कदम दर्शाते हैं कि कम से कम पर्यावरण के मामले में हमारा दृष्टिकोण बदल रहा है।

उधर जब हम दायेश और अलकायदा जैसे आतंकवादी प्रसार की बात करते हैं तो समझ आता है कि इसका आधार मुख्यत: रूढ़िवादी सोच  और मध्यकालीन इस्लामी राज्य का दर्शन है । पर हम इस बात में भी पूर्वाग्रह रखते हैं कि आतंकवाद का कारण सिर्फ बाहरी है। दरअसल जब अलग दृष्टिकोण से देखें तो कहीं ना कहीं राज्य की घरेलु असफलता भी इसका कारण होती है। भारत में साम्प्रादायिक वर्गों द्वारा यदा कदा जो नफरत की स्याही फैलायी जाती है उसके कारण भी अपने ही युवा देश विरोधी भावनाएं रखने लगते हैं। जब समस्या को सही से समझा ही नहीं जायेगा तो उसका बढ़ना तो अनिवार्य ही है। हमारे सामज में ही व्याप्त आतंरिक विभाजन जब तक समाप्त नहीं होंगे तब तक ऐसी समस्याएं बानी रहेंगी और पड़ोसी मुल्क इसका फायदा उठाते रहेंगे।

इसलिए अच्छे सामाज के साथ साथ अच्छे राज्य के निर्माण हेतु भी नयी सोच का होना आवश्यक है। यहाँ ये नहीं सोचना चाहिए की नए के लिए पुराना बिलकुल भूल जाना चाहिए। पुराने ज्ञान से वो बातें जरूर सीखनी चाहियें जो गतिशील हों, जो शास्वत हों जैसे पृथ्वी की रक्षा, बड़ों का सम्मान और आपसी भाईचारा। पुराने ज्ञान का प्रयोग उस पत्थर के भांति करना चाहिए जिसपे नये ज्ञान को घिसकर और परिष्कृत किया जा सके। बिना इतिहास के ज्ञान के तो गलतियों का दोहराव होगा, उसे रोकने हेतु इतिहास की घटनाएं नहीं बल्कि उनकी शिक्षा को आत्मसात करना चाहिए। इसलिए नए व पुराने का संतुलन आवश्यक है।

अंत में हम यह कह सकते हैं कि उस व्यक्ति व उस समाज का भविष्य उज्जवल है जो जड़ता से दूर है और नयी सोच को अपनाने हेतु खुला है। जड़ता जहाँ रूढ़िवादिता और कट्टरता की बेड़ियां बनाती है वही नए विचार आजाद करते हैं। नए विचार नयी समस्याओं का हल नए परिप्रेक्ष्य में ढूंढते हैं और हमे किसी विचार और वस्तु के प्रति आसक्त होने से रोकते हैं। प्रगति हेतु यह भी आवश्यक है कि नए व पुराने में विभाजन नहीं बल्कि संतुलन लाया जाये जिससे पुराने अनुभव पर हम नए मार्ग बना सकें। इस सन्दर्भ में हिंदी सिनेमा का यह गीत उत्कृष्ट उदाहरण है ।
छोड़ो कल की बातें ,
कल की बात पुरानी,
नए दौर में लिखेंगे,
हम मिलकर नयी कहानी,
हम हिंदुस्तानी,
हम हिंदुस्तानी।।

–----------------------------------
सन्दर्भ:
1) नंदन नीलेकणि- उभरते भारत की तस्वीर,
२) अमर्त्य सेन- हिंसा और अस्मिता का संकट,
3) ज्योतिबा फुले- गुलाम गिरी,
4) प्लेटो - द रिपब्लिक,
5) रामचंद्र गुहा- पर्यावरणवाद का इतिहास।

Comments

  1. hello sir.you have written an essay in a disciplined manner.sir,can you please help me in ..how to write in hindi on blogs or insights like public platform.i am also a upsc aspirant in hindi medium and planning to start a blog in hindi.

    ReplyDelete
  2. Hello sir.....ur way of writing is really mannered n polished.....it it really the thing that I was searching for.....r u a upsc aspirant???

    ReplyDelete
  3. Book review Urja ke strot bataiye

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

क्या युवाओं को राजनीति को एक वृत्ति (करियर) के रूप में देखना चाहिए

प्रोद्योगिकी पर अति निर्भरता मानव विकास को बढ़ावा देगी

भारत में समावेशिता - अभी भी एक दूरस्थ स्वप्न ?