हम आतंकवाद से लड़ नहीं सकते, हमें इसके साथ ही रहना होगा

11 सितम्बर 2001 की वह सुबह अमरीकी लोगों के लिए आम ही थी जब तक की एक अपहृत विमान वैश्विक व्यापार की प्रतीक वर्ल्ड ट्रेड सेंटर से नहीं टकराया था। कुछ देर बाद ही एक दूसरा विमान इसी सेंटर की दक्षिणी ईमारत से टकराया और यहीं से इतिहास एक नयी दिशा में मुड़ गया। 9/11 के हमले से पूर्व विश्व आतंकवाद को एक छेत्रीय घटना के रूप में समझता आया था परंतु इस घटना ने आतंकवाद को वैश्विक रूप दे दिया । अब सम्पूर्ण विश्व इस खतरे के प्रति सचेत हुआ और इससे लड़ने की रणनीति बनाने लगा । आतंकवाद के प्रति बदले दृष्टिकोण ने इस बहस को जन्म दिया की आतंकवाद का खात्मा कैसे हो। क्या आतंकवाद से लड़कर उसे ख़त्म किया जाये या उसके साथ रहते हुए ऐसे कारणों को ख़त्म किया जाये जिससे यह उपजता है । प्रश्न यह है कि क्या आतंकवादियों को ख़त्म करने से आतंकवाद समाप्त होगा या फिर इसका समाधान कुछ और है।

इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमे सबसे पहले आतंकवाद को समझना होगा। मूलतः आतंकवाद की उत्पत्ति 1789 की फ़्रांसिसी क्रांति से जोड़ी जाती है जब तानाशाह राब्सपीयर ने आतंक का शासन लागू किया था फिर आगे चलकर 19वीं और 20वीं सदियों में इसने राष्ट्रवादी व उपनिवेशवाद विरोधी रुख लिया। जहाँ आतंक का शासन राज्य द्वारा जनता में विद्रोह को दबाने के लिए किया गया था वहीँ राष्ट्रवादी आतंकवाद एक साम्राज्यवादी उत्पीडक़ राज्य के विरुद्ध हिंसा थी।अपने हर रूप में आतंकवाद का मूल बल हिंसा के प्रयोग पर होता है। अधिकतर आतंकवादी कार्यवाही गोरिल्ला युद्ध की तरह छुपकर की जाती है परंतु जब हिंसा राज्य द्वारा हो तो यह खुले रूप में होती है।

आतंकवाद अपना वैचारिक प्रसार करने हेतु भय का सहारा लेता है इसकी कार्यवाहियां केवल एक छणिक नुक़सान नहीं करती वरन इनका उद्देश्य जनता में एक भय को व्याप्त करना भी होता है । आतंकवादी लगातार छुपकर हमले करतें हैं जो सरकार को इस ओर सोचने पर मजबूर कर देते हैं। आम लोग भी भय के कारण समझौते पर बल देने लगते हैं। इस प्रकार आतंकवाद एक ऐसी राजनीतिक कार्यवाही है जो हिंसा का सहारा लेकर राजनीतिक लक्ष्य को साधती है ।

9/11 हमले के उपरान्त अमेरिकी विद्वानों ने वैश्विक आतंकवाद को धार्मिक आतंकवाद की संज्ञा दी। उन्होंने आतंकवाद को इस्लामिक उग्रवाद से जोड़ दिया और विश्व में आतंक से युद्ध की मुहिम छेड़ दी । पर क्या सच में धर्म का आतंकवाद से कोई लेना देना है, दरअसल विश्व में सहयोग जुटाने के लिए यह एक अमेरिकी प्रोपोगंडा था जिससे वह न केवल अल कायदा के विरुद्ध समर्थन जुटा सके बल्कि सद्दाम हुसैन व मुअम्मर गद्दाफी जैसे अमेरिका विरोधी शासकों को भी ख़त्म कर सके। अमेरिका वस्तुतः अपनी उन गलतियों का दंड भोग रहा था जो उसने शीत युद्ध के समय की थी । लादेन का जन्म उन अमेरिकी नीतियों से हुआ था जिन्होंने अफगानिस्तान में सोवियत संघ के विरुद्ध जेहादी सेना खड़ी की थी।यही लादेन आगे चलकर 9/11 का भस्मासुर सिद्ध हुआ जिसने अपने आश्रयदाता को ही समाप्त करने की ठान ली थी। वर्तमान आतंकी खतरे दायेश का जन्म भी पश्चिमी एशिया में अमेरिकी घुसपैठ व अशांति प्रसार में ढूंढ जा सकता है।

जब वर्ष 2001 में  अमेरिका ने 'आतंक के खिलाफ युद्ध' की धारणा रखी तो उसने संपूर्ण आतंकवादी विचारधारा को ही नकारात्मक रूप में प्रसारित किया। इससे आम जनमानस और देशों में यह भावना घर कर गयी की आतंकवाद का खात्मा केवल सैन्य तरीकों से ही किया जा सकता है। इस भावना ने देशों को अत्यधिक हिंसा के प्रयोग की प्रेरणा दी और फिर श्री लंका जैसे छोटे देशों में भी आतंकवाद के विरुद्ध व्यापक रक्तपात देखा गया। ऐसे विरोधों को भी आतंकवाद से जोड़कर कुचला गया जो जायज मांगों पर आधारित थे। अब हर  तरह के विरोध को आतंकवाद से जोड़कर कुचलना देशों के लिए आसान हो गया है।

देशों ने यह समझ लिया है कि वह आतंकवाद को ख़त्म कर सकते हैं और शक्ति प्रयोग इसका एकमात्र साधन है। आज के राज्य ये भूल रहें हैं कि विचारधाराओं को मारना आसान नहीं है , उसके प्रतिपादक और समर्थक मर सकते हैं पर विचारधारा नहीं। आतंकवाद एक ऐसी ही विचारधारा है , राज्य आतंकवादियों को मार सकता है पर फिर किसी उद्देश्य पर एक नया आतंवादी खड़ा हो जायेगा। आज जब आतंकवादी गुट एक समूह से बढ़कर एक विचारधारा के तले जुड़ रहे हैं और स्लीपर सेल के रूप में व्याप्त हैं तब ये और जरुरी हो जाता है कि आतंकवाद को अन्य तरीकों से समझा जाये और इसके समाधान ढूंढे जाएँ।

गांधी जी ने कहा है कि उत्तम साध्य हेतु उत्तम साधन का होना भी जरुरी है। यदि हमें आतंकवाद को सच में ख़त्म करना है तो पहले हमें उसे स्वीकारना होगा, उसके साथ रहकर मंथन करना होगा और फिर उसे रोकने होगा उसकी जड़ों पर प्रहार करके। इस सन्दर्भ में भारत में चल रहे प्रति नक्सली आतंकवाद ऑपरेशन को का अध्य्यन उचित होगा।

भारत में नक्सलवादी आंदोलन की शुरुआत 1960 के दशक में हुई थी जिसका मूल कारण भूमि वितरण की असंगतियों में छुपा था। पहले पहल तो इसकी रोकथाम हेतु बल का प्रयोग किया पर बाद में सरकार ने अपने रुख को बदला। बल प्रयोग की स्तिथि में यह देखा गया कि नक्सली आंदोलन को ज्यादा प्रसार मिला और यह तेजी से अन्य राज्यों में फैला , फिर राज्य सरकारों ने पुलिस कार्यवाही की जगह विकास और भूमि वितरण योजनाओं को बढ़ावा दिया जिससे नक्सली हिंसा में व्यापक कमी आयी। पूर्वोत्तर भारत में भी नगा आंदोलन में सरकार ने बातचीत को बढ़ावा दिया जिसके कारण एन ऐस सी एन जैसे उग्रवादी समूह वार्ता मंच पर आये। वर्ष 2015 में भारत सरकार ने नगा अलगाववादियों के साथ एक वार्ता फ्रेमवर्क पर समझौता किया जिससे भविष्य में समाधान के रास्ते ढूंढे जायेंगे।

दूसरी तरफ सीमापार आतंकवाद को सुलझाने के लिए भारत सरकार ने कई बार पड़ोसी देश से बात की पर वह विफल ही रही। कश्मीर में हो रही आतंकवादी घटनाएं भले ही भारत पाकिस्तान के विभाजन से उपजी हों परंतु इनमे तेजी 1971 के युद्ध के बाद आई। अब यह राजनीतिक मसले से बढ़कर इस बात पर आधारित हो गया है कि कैसे भारत में अशांति फैलायी जाए। हाल ही में पूर्व रॉ प्रमुख 'ए एस दुलात 'ने अपनी पुस्तक 'कश्मीर -द वाजपई इयर्स ' में कहा कि हमारा पड़ोसी देश कश्मीर समस्या का हल चाहता ही नहीं है क्योंकि यदि कश्मीर समस्या सुलझ गयी तो वहां की निर्वाचित सरकार किस मुद्दे पर टिकी रहेगी।

कश्मीर का मुद्दा उनके देश में राष्ट्रवादी जुड़ाव का काम करता है जिसके सुलझते ही वह देश टुकड़ों में टूट सकता है। इस स्तिथि में भारत सरकार द्वारा बल प्रयोग जायज है पर इसके साथ ही यह भी जरुरी है कि बातचीत द्वारा कश्मीरी अलगाववादियों को रोका जाए। 2010 के बाद से घाटी में हिंसा 40 प्रतिशत बढ़ गयी है इसे रोकने के लिए जो बल प्रयोग हुआ इससे यह और भड़की हैं, पहले केवल उत्तरी कश्मीर इसकी चपेट में था जबकि अब दक्षिणी कश्मीर में भी इसकी पैठ बन रही है। इस सन्दर्भ में यह जरुरी हो गया है कि सरकार बातचीत के रास्ते पर ज्यादा बल दे।

उपरोक्त विश्लेषण के बाद अब फिर से अपने प्रश्न को देखते हैं कि क्या हम आतंकवाद से लड़ नहीं सकते। इसका जवाब यही है कि आतंकवाद से लड़ा नहीं जा सकता क्योंकि वह एक अमूर्त विचारधारा है , हम आज कुछ आतंकवादियों को मार दें तो इससे कुछ ठहराव आएगा पर यह ख़त्म नहीं होगा। हमे आतंकवाद की विचारधारा को स्वीकार करना होगा क्योंकि कई बार एक देश के लिए जो आतंकवादी होता है वही दूसरे देश के लिए वह स्वतंत्रता सेनानी। हमे भेद करना होगा की आतंकवाद का लक्ष्य किस ओर है और फिर उसका समाधान बातचीत से शुरू करना होगा, अंतिम रूप में ही सीमित बल प्रयोग करना होगा।

हमे अमेरिका द्वारा प्रसारित इस भाव से निकलना होगा की आतंक का समाधान केवल युद्ध है , और इसे धर्म से अलग करना होगा । ये भाव आम जनता के मन भी कुंठा उत्पन्न करते है और वे भी साम्प्रदायिक तत्वों से वैचारिक साम्य में आ जाते हैं, उनके मन में उत्पन्न भय हिंसा को सही मान लेता है और फिर उन्हें समाधान के अन्य रास्ते नजर नहीं आते। हिंसा गलत है पर उसके कारण सभी गलत नहीं होते, सरदार भगत सिंह ने भी उत्पीड़क के खिलाफ हिंसा को जायज ठहराया था।

इस प्रकार अपने उत्तर की खोज में हमने देखा की आतंकवाद एक राजनीतिक कार्यवाही है परंतु इसका स्वार्थ के कारण गलत उपयोग भी हुआ। इसका मकसद पहले केवल सरकार विरोधी कार्यवाहियों तक था पर फिर अल कायदा जैसे संगठन ने इसे आम जनता का संहारक बना दिया। आतंकवाद एक विचारधारा है ,एक शैली है जिसे कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता । हम यह भी नहीं मान सकते की हमे इसको स्वीकार करके इसके साथ रहना पड़ेगा बल्कि हमे इसे समझना होगा, इसके रूपों में भेद करना होगा। हर समस्या को एक ही  चश्मे से देखने की बजाये उसे उसके परिप्रेक्ष्य में देखना होगा और फिर उसका समाधान करना होगा । सभी समस्यायों को एक ही ढाँचे में देखकर उनको शक्तिपूर्वक दबाना एकमात्र उपाय है , ऐसी विचारधारा हमे छोड़नी होगी। जब हम एकांगी सोच से परे हटकर आतंकवाद की समस्या का हल खोजेंगे तो निश्चित ही ऐसे रास्ते निकलेंगे जो विश्व शांति को बढ़ावा देने वाले होंगे।
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सन्दर्भ:
1) एंड्रू हेवुड- ग्लोबल पॉलिटिक्स
2) सैम्युएल हटिंगटन- क्लैश ऑफ सिविलिज़शन्स
3) द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट

Comments

  1. accha likha hai, cst hindi m bhi aapne hi likha hai kya ...

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