जो घर स्वयं में ही विभाजित हो वह खड़ा नहीं रह सकता |
घर एक ऐसी जगह है जहां परिवार रहते हैं । परिवार केवल इंसानों के साथ रहने से ही नहीं बल्कि उनके आपसी जुड़ाव से बनते हैं । आपस के प्यार भरे रिश्ते , नोक झोंक और एक दूसरे का साथ निभाने का एहसास यही है जो परिवार को परिवार और घर को घर बनता है । घर में अलग अलग विचारों के कारण मतभेद हो सकते हैं पर जब मतभेद बढ़ कर विभाजन का कारण बन जाते हैं तो घर टूटने लगते हैं । हमारे महाकाव्य गवाह हैं की कैसे रावण विभीषण के मतभेदों के चलते लंका ध्वस्त हो गयी और पांडव- कौरव विचार विभाजन से कुरुक्षेत्र की भूमि सम्बन्धियों के रक्त से पट गयी |परिवारों में जब मतभेद होते हैं तो परिवार की सोच परिष्कृत होती है और परिवारों के निर्णय एकांगी नहीं होते परंतु जब मतभेद विभाजन का रूप ले लें तो प्रगति रुक जाती है और परिवार दिशाहीन हो जाते हैं।
परिवारों के संयोग से ही समाज बनते हैं और समाज में मतभेदों की संख्या परिवारों की संख्या के साथ साथ बढ़ती जाती है। समाज में वैचारिक मतभेदों के साथ साथ लैंगिक, धार्मिक, जातीय, नस्लीय और आर्थिक मतभेद भी होते हैं पर यही मतभेद या छोटे अंतर उग्र रूप लेकर विभाजन में बदल जाते हैं । भारतीय समाज में ऐतिहासिक काल से ही कई प्रकार के विभाजन व्याप्त हैं जो आधुनिक भारत को भी प्रतिगामी बनाते हैं।
भारतीय समाज में आज भी सबसे बड़ी असामनता जाति के रूप में दिखती है। यह जाति व्यवस्था एक समय केवल विभिन्न व्यवसायों का प्रतीक मानी जाती थी परंतु अंग्रेजी शासन ने इसे ही भारतीय समाज का मुख्य विभाजक बना डाला । इस ऊंच नीच में बाँटने वाली व्यवस्था के कारण ही आज भी हमारे समाज में समावेशन पूर्ण रूप से नहीं दिखता । अंतर जातीय विवाह आज भी समाज में कहीं कहीं ही नजर आते हैं , केवल विवाह ही नहीं किराये पर मकान उठाना, बच्चा गोद लेना, व्यवसायिक गठबंधन आदि में भी सजातीय तत्व प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बिहार जैसे कुछ राज्यों में आज भी कई जगहों पर इन्ही कारणों पर बंधुआ मजदूरी जैसी कुप्रथाएं अभी तक व्याप्त हैं। हरियाणा में कुख्यात 'हॉरर किलिंग ' के वाक्ये बताते हैं की कैसे सामाजिक विभाजन भारत के समाज की प्रगति को रोके हुए हैं ।
केवल जाति ही नहीं हमारा समाज धार्मिक रूप में भी बंटा हुआ है जिसकी परिणिति सांप्रदायिक दंगों में यदा कदा दिखती रहती है । धर्म पर आधारित छोटे छोटे मतभेद राजनीतिक रंग लेकर बड़ी झड़पों
में तब्दील हो जाते हैं और हमारा आंतरिक सौहार्द मिट जाता है। यह मसले लोगों को और अधिक उनके जातिगत व धर्मगत समूहों से जोड़ते हैं और फिर साधारण विषय भी राजनीतिक रूप ले लेते हैं। इन समूहों में फिर कुछ ऐसे नेताओं का उदय होता है जो अपने स्वार्थ हेतु अलगाव को और बढ़ावे देते हैं । उदाहरण के लिए हाल ही में जब एक साम्प्रदायिकता से भड़के छेत्र में पानी की सप्लाई टैंकर से की गयी तो कुछ छेत्रीय नेता उसमे भी धार्मिक कोटे की मांग करने लगे ।
आजादी के बाद हमारा देश आर्थिक आधारों पर भी और बाँट गया है। भूमि के असंतुलित वितरण से व कबीलाई छेत्रों में अवैध घुसपैठ से देश में नक्सली आंदोलन का उदय हुआ। आये दिन होने वाली हड़तालें, काम रोको आंदोलन , अनावश्यक विलम्ब और घूसखोरी इन सबकी उत्पत्ति आर्थिक असामनता के कारण ही हुई है । यह कहना गलत नहीं होगा की आर्थिक वंचना के बढ़ने से ही जातीय, धार्मिक और भाषायी आधारों पर विभाजन बढ़ा है। कई छेत्रीय नेताओं का उदय इसी आधार पर हुआ है कि उन्होंने इन असमानताओं को कम करने की मांग रखी।
जैसे विभाजन परिवारों को तोड़ते हैं वैसे ही समाज भी उपर्युक्त विभाजनों के कारण बट जाते हैं। जो समाज समग्र रूप से शक्तिवान होकर प्रगति कर सकते थे वही समाज टुकड़ो में बटकर अलग अलग मांग करते हैं और केवल अपने ही विकास की बात सोचते हैं। यह गुट दूसरे गुट की प्रगति को अपनी हानि मानते हैं इसलिए एक दूसरे की काट में लगे रहते हैं। इससे समाज में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा मरती जाती है और यथा स्तिथि बानी रहती है।
यही विभाजन विभिन्न रूपों में हमारी संसद व विधान सभाओं में नजर आने लगते हैं। हाल ही में जी एस टी विधेयक की बहस में देखा गया कि सभी दल हालांकि वैचारिक रूप में इससे सहमत थे परंतु दलगत विभाजन ने इसमें भी व्यवधान उत्पन्न कर दिए। दलों में जी एस टी विधेयक को क़ानून बनाने से ज्यादा दिलचस्पी इस बात में दिखी की कौन सा दल इसको लाने का श्रेय पायेगा। जिस संसद से स्वस्थ बहस की उम्मीद पूरी जनता करती है वहां अभद्रता और अशिष्टता बढ़ती जा रही है। यही नहीं लोकसभा के प्रतिनिधि राज्यसभा की मान्यता पर ही प्रश्न उठाने लगे हैं। जिन दो सभाओं का समन्वय इस देश के पहिए को घूमता है आज वह टूटने लगा है । इन सभाओं की आपसी खींच-तानी में देश पिसा जा रहा है और जिन समस्याओं का समाधान अल्पकाल में ही संभव था वो भी विकराल होती जा रही हैं।
परिवारों के संयोग से ही समाज बनते हैं और समाज में मतभेदों की संख्या परिवारों की संख्या के साथ साथ बढ़ती जाती है। समाज में वैचारिक मतभेदों के साथ साथ लैंगिक, धार्मिक, जातीय, नस्लीय और आर्थिक मतभेद भी होते हैं पर यही मतभेद या छोटे अंतर उग्र रूप लेकर विभाजन में बदल जाते हैं । भारतीय समाज में ऐतिहासिक काल से ही कई प्रकार के विभाजन व्याप्त हैं जो आधुनिक भारत को भी प्रतिगामी बनाते हैं।
भारतीय समाज में आज भी सबसे बड़ी असामनता जाति के रूप में दिखती है। यह जाति व्यवस्था एक समय केवल विभिन्न व्यवसायों का प्रतीक मानी जाती थी परंतु अंग्रेजी शासन ने इसे ही भारतीय समाज का मुख्य विभाजक बना डाला । इस ऊंच नीच में बाँटने वाली व्यवस्था के कारण ही आज भी हमारे समाज में समावेशन पूर्ण रूप से नहीं दिखता । अंतर जातीय विवाह आज भी समाज में कहीं कहीं ही नजर आते हैं , केवल विवाह ही नहीं किराये पर मकान उठाना, बच्चा गोद लेना, व्यवसायिक गठबंधन आदि में भी सजातीय तत्व प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बिहार जैसे कुछ राज्यों में आज भी कई जगहों पर इन्ही कारणों पर बंधुआ मजदूरी जैसी कुप्रथाएं अभी तक व्याप्त हैं। हरियाणा में कुख्यात 'हॉरर किलिंग ' के वाक्ये बताते हैं की कैसे सामाजिक विभाजन भारत के समाज की प्रगति को रोके हुए हैं ।
केवल जाति ही नहीं हमारा समाज धार्मिक रूप में भी बंटा हुआ है जिसकी परिणिति सांप्रदायिक दंगों में यदा कदा दिखती रहती है । धर्म पर आधारित छोटे छोटे मतभेद राजनीतिक रंग लेकर बड़ी झड़पों
में तब्दील हो जाते हैं और हमारा आंतरिक सौहार्द मिट जाता है। यह मसले लोगों को और अधिक उनके जातिगत व धर्मगत समूहों से जोड़ते हैं और फिर साधारण विषय भी राजनीतिक रूप ले लेते हैं। इन समूहों में फिर कुछ ऐसे नेताओं का उदय होता है जो अपने स्वार्थ हेतु अलगाव को और बढ़ावे देते हैं । उदाहरण के लिए हाल ही में जब एक साम्प्रदायिकता से भड़के छेत्र में पानी की सप्लाई टैंकर से की गयी तो कुछ छेत्रीय नेता उसमे भी धार्मिक कोटे की मांग करने लगे ।
आजादी के बाद हमारा देश आर्थिक आधारों पर भी और बाँट गया है। भूमि के असंतुलित वितरण से व कबीलाई छेत्रों में अवैध घुसपैठ से देश में नक्सली आंदोलन का उदय हुआ। आये दिन होने वाली हड़तालें, काम रोको आंदोलन , अनावश्यक विलम्ब और घूसखोरी इन सबकी उत्पत्ति आर्थिक असामनता के कारण ही हुई है । यह कहना गलत नहीं होगा की आर्थिक वंचना के बढ़ने से ही जातीय, धार्मिक और भाषायी आधारों पर विभाजन बढ़ा है। कई छेत्रीय नेताओं का उदय इसी आधार पर हुआ है कि उन्होंने इन असमानताओं को कम करने की मांग रखी।
जैसे विभाजन परिवारों को तोड़ते हैं वैसे ही समाज भी उपर्युक्त विभाजनों के कारण बट जाते हैं। जो समाज समग्र रूप से शक्तिवान होकर प्रगति कर सकते थे वही समाज टुकड़ो में बटकर अलग अलग मांग करते हैं और केवल अपने ही विकास की बात सोचते हैं। यह गुट दूसरे गुट की प्रगति को अपनी हानि मानते हैं इसलिए एक दूसरे की काट में लगे रहते हैं। इससे समाज में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा मरती जाती है और यथा स्तिथि बानी रहती है।
यही विभाजन विभिन्न रूपों में हमारी संसद व विधान सभाओं में नजर आने लगते हैं। हाल ही में जी एस टी विधेयक की बहस में देखा गया कि सभी दल हालांकि वैचारिक रूप में इससे सहमत थे परंतु दलगत विभाजन ने इसमें भी व्यवधान उत्पन्न कर दिए। दलों में जी एस टी विधेयक को क़ानून बनाने से ज्यादा दिलचस्पी इस बात में दिखी की कौन सा दल इसको लाने का श्रेय पायेगा। जिस संसद से स्वस्थ बहस की उम्मीद पूरी जनता करती है वहां अभद्रता और अशिष्टता बढ़ती जा रही है। यही नहीं लोकसभा के प्रतिनिधि राज्यसभा की मान्यता पर ही प्रश्न उठाने लगे हैं। जिन दो सभाओं का समन्वय इस देश के पहिए को घूमता है आज वह टूटने लगा है । इन सभाओं की आपसी खींच-तानी में देश पिसा जा रहा है और जिन समस्याओं का समाधान अल्पकाल में ही संभव था वो भी विकराल होती जा रही हैं।
बहुदा देखा जाता है कि एक व्यक्ति जब अपने उसूलों और अपने निर्णयों में तारतम्य नहीं रख पता तब वह अवसाद से ग्रस्त हो जाता है। उसके आंतरिक मानसिक मतभेद जब बढ़ जाते हैं तो उसमें निराशा भर जाती है और फिर वह अपनी कुंठा दूसरों पर निकाल कर स्वयं को सँभालने की कोशिश करता है । इसी प्रकार जब एक देश अपने आंतरिक मतभेदों के कारण बिखरने लगता है तो वह इस टूटन को रोकने के लिए किसी अन्य देश पर आक्रोश निकलता है। हमारा पड़ोसी देश जब अपने प्रान्तों से गरीबी और दरिद्रता के कारण उठने वाली अलगाव वादी आवाजों से टूटने लगता है तो वह कश्मीर और भारत का राग अलापने लगता है । परंतु बाह्य तत्वों पर गुस्सा निकालकर स्वयं को टूटने से ज्यादा समय तक रोक नहीं जा सकता चाहे वह व्यक्ति हो या देश। सोवियत संघ का टूटना उदहारण है कि आंतरिक विफलता एक न एक दिन देश को तोड़ ही देती है । ऐसे में जरुरी है की देश बाह्य कारकों से ज्यादा अपने अंदर ही विखंडनीय तत्वों को ढूंढे और उनका इलाज करे ।
आज सम्पूर्ण विश्व भी जलवायु परिवर्तन के नाम पर एक होकर भी विखंडित है। देश समस्या के नाम पर तो एकमत हैं परंतु समाधान के नाम पर विमुख। बड़े देश अभी भी तकनीकी हस्तांतरण और सब्सिडी के मुद्दे पर अपना हठ नहीं छोड़ रहे हैं और विकासशील देश समस्या का सारा भार विकसित देशों पर डालकर अपना उत्तरदायित्व काम करना चाहते हैं। परंतु यह किसी के लिए भी लाभदायक नहीं होगा क्योंकि वैष्विक तापन सभी पर सामान असर डालेगा। केवल जलवायु ही नहीं आतंकवाद के मुद्दे पर भी देशोंमें मतभेद हैं, आज दायेश और अल कायदा का खतरा वैश्विक खतरा बना है क्योंकि समस्त देश इनके प्रति एक राय नहीं रखते। चीन द्वारा पकिस्तान को एकतरफा समर्थन , अरब देशों द्वारा इस्लामी उग्रवादियों को समर्थन , इजराइल की कट्टरता को अमेरिकी समर्थन आदि उदाहरण है कि कैसे विश्व मानवीय आधारों पर एक न होकर विभिन्न आधारों पर बंटा हुआ हैं।
आधुनिक समय की मांग राष्ट्रवाद से बढ़ कर है । देशों के अंदर तो एकता और अखंडता का महत्व सर्वोच्च है परंतु बदलती वैश्विक परिस्थितियों के अनुसार वैष्विक एकता को भी महत्त्व देना चाहिए । आंतरिक सद्भावना को बढ़ाने हेतु देशों को अपने भीतर ऐसी नीतियों व साधनों को बढ़ावा देना चाहये जिससे लोगों का आपसी मतभेद कम हो ।एक साधन के रूप में भारत सरकार द्वारा डिजिटल इंडिया को बढ़ावा देना इस ओर एक सराहनीय पहल है। जितना ज्यादा लोगों की शिक्षा तक पहुँच सरल होगी और सोशल मीडिया द्वारा लोगों का आपसी व सरकार से जुड़ाव बढ़ेगा वैसे वैसे वंचना के भाव घटेंगे। लोगों की सोच को परिवर्तित करने पर बल दिया जाना चाहिए, ऐसी राजनीतिक द्वंदबाजियां बंद होनी चाहिए जो विभाजन के नाम पर राजनीतिक रोटियां सेंकती हो।
शिक्षा में भी ऐसे इतिहास के प्रवाह को रोकना होगा जो देश में विभाजन की रेखाएं खींचे , और ऐसे मूल्यों को बढ़ावा देना होगा जो सहिष्णुता , सर्व धर्म समभाव और महिला सम्मान को बढ़ावा दें । इसके लिए संविधान में वर्णित वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहिए जो परंपरा को तर्क के तराजू में तौल सकें और ऊंच नीच , नर मादा , अमीर गरीब के भेद को मिटा सके ।वैश्विक पटल पर सभी स्वार्थपरक आधारों को छोड़ मानव कल्याण को ही मुख्या आधार माना जाना चाहिए और ऐसे सभी अंतरों को मिटाया जाये जो मानवीय छति के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण बने । आतंकवाद, गरीबी, जलवायु आदि समस्याओं को उनके सही वैष्विक रूप में समझना चाहिए ताकि सभी देश मिलकर उनका सही समाधान निकाल सकें । यदि ऐसा नहीं हुआ तो विश्व आने वाले समय में अधिक विखंडित होता जायेगा।
शिक्षा में भी ऐसे इतिहास के प्रवाह को रोकना होगा जो देश में विभाजन की रेखाएं खींचे , और ऐसे मूल्यों को बढ़ावा देना होगा जो सहिष्णुता , सर्व धर्म समभाव और महिला सम्मान को बढ़ावा दें । इसके लिए संविधान में वर्णित वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना चाहिए जो परंपरा को तर्क के तराजू में तौल सकें और ऊंच नीच , नर मादा , अमीर गरीब के भेद को मिटा सके ।वैश्विक पटल पर सभी स्वार्थपरक आधारों को छोड़ मानव कल्याण को ही मुख्या आधार माना जाना चाहिए और ऐसे सभी अंतरों को मिटाया जाये जो मानवीय छति के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारण बने । आतंकवाद, गरीबी, जलवायु आदि समस्याओं को उनके सही वैष्विक रूप में समझना चाहिए ताकि सभी देश मिलकर उनका सही समाधान निकाल सकें । यदि ऐसा नहीं हुआ तो विश्व आने वाले समय में अधिक विखंडित होता जायेगा।
निष्कर्ष में हम कह सकते हैं की मतभेदों का होना आवश्यक होता है ,मतभेदों से दृष्टिकोण एकांगी होने से बचता है और प्रगति के कई विकल्प खुलते हैं पर जब मतभेद उग्र हो जाते हैं तो घर हो या देश या फिर पूरा विश्व उसमे टूटन आ जाती है। जैसे हर ऊँगली एक सामान नहीं होती पर फिर भी मुट्ठी में समाकर शक्ति का रूप ले लेती है वैसे ही हर इकाई को देश की उन्नति के लिए एक होना चाहिए और हर देश को मिलकर वैश्विक समस्याओं के हल खोजने चाहये। धर्म ,लिंग, जात -पांत , नस्ल, भाषा आदि के आधारों से ऊपर उठकर जब सब एक समान सोचेंगे तभी संपूर्ण मानव जाति का उद्धार होगा। अन्त में हम देख सकते है की कैसे मार्टिन लूथर किंग जूनियर की इन सुन्दर पंकितयों में एकता व अखंडता का सुन्दर दर्शन मिलता है ।
हमें बंधुओं के सामान साथ में रहना सीखना चाहिए ,
या फिर मूर्खों की भांति अलग रहकर समाप्त हो जाना चाहिए ।
हमें बंधुओं के सामान साथ में रहना सीखना चाहिए ,
या फिर मूर्खों की भांति अलग रहकर समाप्त हो जाना चाहिए ।
Comments
Post a Comment